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आखिरी खुदा

दिन बीतते जाते हैं..उम्र की कई दह्लीजे खिसकती जाती हैं..हमारे दायरे सिकुड़ते और बढ़ते रहते हैं...उन दायरों में शायद अभी भी वो खालीपन बाकी है..कुछ और ..कुछ और और शायद कुछ और की तलाश... शब्दों से प्यार करना भी एक खता है..कुछ शब्द आपके लिए सपने ले आते हैं, कुछ सच के जलते शोले..कुछ नमकीन पानी बन आँखों से बह जाते है..कुछ पुकार बन हवा में तैर जाते है...मुझे अभी भी कुछ और शब्दों की तलाश है... लगता है वक़्त के साथ चलने की दुनिया कि दौड़ में हम ज़रा पीछे रह गए..सब कुछ थमा थमा सा लगता है..सारे स्वप्न, कल्पनाएँ, यहाँ तक कि दिन और रात भी...पर सिर्फ मेरे लिए..बाकि दुनिया जैसे सरपट दौड़ रही है.. अकेलापन वह भी भीड़ में होते हुए..चाहे वो हँसता-खेलता बचपन हो या नवोदय विद्यालय के दिन, मिरांडा हाउस के कॉरिडोर से गुजरते हुए या दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस में घुमते वक्त, मैंने हमेशा अपने आप को अकेले कोनों में सिमटते पाया..नहीं घुल मिल पाती सबके साथ ...कभी दोस्तों के ग्रुप्स में मैं शामिल नहीं थी..बल्कि कई तो क्लास के ग्रुप में भी मुझे पाकर असहज हो जाते थे..वज़ह मैं जान नहीं पायी.. आज...