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खौफ लफ़्ज़ों से हो तो मौन रहिये

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खौफ लफ़्ज़ों से हो तो फिर मौन रहिये दाग दामन में हों तो मौन रहिये हमने तो नाम भी नहीं लिया आपका आपकी दाढ़ी में तिनका निकला हुज़ूर मौन रहिये जो कौम सवालों से डरती है वो खुदा के नाम हर छद्म भरती है आप तो नाखुदा के सेहन में हैं फिर भी तूफ़ान से डर  हो तो मौन रहिये अजनबी शहर के अजनबी लोग हैं मुद्दतों साथ रहते साथ जीते से अलग अलग आप तो जमाने की चाहत हैं बेचैनी अपनों की हिकारत से है तो मौन रहिये फ़िक्र नहीं कभी तो गर्क होगी दीवार फरेब की आप नकाबों में छुपे ही खूबसूरत रहें हम तो लफ्जों को जीते हैं कुछ तो कहेंगे ही खौफ लफ़्ज़ों से हो तो मौन रहिये

चुराने लगी हो तुम मेरी कविता

सुना है आजकल चुराने लगी हो तुम मेरी कविता शब्द मेरे तुम्हे इतने अपने लगने लगे हैं तुम समझ बैठी हो उन्हें अपना ही पर क्या अपनी लगेंगी शब्दों के साथ वो तमाम   चीजें भी जो उन कविताओं में हैं हंसी और आंसू , अफ़सोस रिश्तो के खोखले होने का इनकार उन समझौतावादी बातों से जो लकीरों से जकड़ती हैं इंसानियत को क्या तुम ढूंढ लोगी उन्ही शब्दों में खुद को जो शब्द मेरे जिए हुए एहसास हैं क्या महसूस लोगी तुम्हारे सामने खड़े रहनुमाओं के मोटे नकाब जो दीखते नहीं बुत छुपा लेते हैं उनकी बेखौफ फितरत जो तुममे मुझमे और न जाने कितने और मासूम दिलों में   भर रहे अपना ही जहरीलापन जानती हूँ तुम अभी उसी ताने बाने से घिरी होगी जहाँ है सहानुभूति का तिलस्म , कोरी महत्वाकांक्षाओं का जाल और सबसे दूर कर अपनी तरह बिना रीढ़ का सरीसृप बना देने का उनका जूनून जानती हूँ वो रोज लपेटेंगे तुम्हे अपने लिजलिजे हाथों से उन्ही झूठे वादों के आगोश में शब्द चुराते चुराते शायद तुम बन बैठी होगी कल्पना में महादेवी , महाश्वेता , तसलीमा और इस्मत आपा भी जानती हूँ फेंक दिए गए होंगे तुम्ह...