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जब आखिरी बार हमारी मुलाकात होगी

मुझे मालूम है एक ओर बार मुलाकात होगी तुमसे हालांकि ये भी मालूम है ये आखिरी बार होगा ये बार बार टाली गई मुलाकात है  क्यूंकि अबतक मैं आखिरी शब्द जोड़ नहीं पाई हर बार तुम्हारे चले जाने को मैने फिर से टाल दिया  हर बार तुम्हारे दूर जाने को अपनी ही गलती मान ली हर बार तुम्हारे नाराजगी में खुद को शरारतें करते देख लिया चाय में अदरक ज्यादा , चीनी ज्यादा है,  शायद ज्यादा उबाल दिया होगा मैने शायद मेरा चुप रहना उसे पसंद नहीं आया पिछली बार उसे  ओह अबकी बार मेरा बीच में बोलना गलत हो गया तो अबकी बार क्या करना है मुझे नहीं पता मुझे बोलना है या चुप रह जाना है ये नहीं पता टूट कर रो देना है या तुम्हारे गले लग कर रो देना है नहीं पता कि तुम्हारे सामने सख्त बनकर तुम्हारे जाने के बाद बिखरना है नहीं पता  पर ये आखिरी बार होगा बस अब सिर्फ ये पता है  अब हमारे तुम्हारे बीच सिर्फ शिकायतें हैं शायद  मुहब्बत अब भी दबी होगी कहीं इन्हीं शिकायतों के बीच चाय साथ पीने की खत्म होती ख्वाहिशों के बीच उसे अब सुलगते छोड़ देना ठीक नहीं होगा शायद जाते जाते तुम उस राख को मसल कर जाना जो बार बार बच...

इनसे बचने की जरूरत है

अब थोड़ा थोड़ा हम भी पहचानने लगे हैं चीजों को, लोगों को ओर कीड़ों मकोड़ों को परजीवियों को, उपभोक्तावादियों कौन ओर अवसरवादियों को अब हम भी समझने लगे हैं आक्षेप जिनका लक्ष्य सिर्फ किसी को भी लग जाना होता है निंदा जो  यूनिवर्सल होते होते कब निजी हो जाती हैं ओर सुझाव जो शुरू से ही जजमेंटल होते हैं  पर कहा जाता है हमने तो अपना समझ कर कहा था  रक्तबीज की तरह फैलते ये साए  हमेशा लिपटे रहते हैं हमारे आसपास  पड़ोस, कार्यालय ओर सड़क पर आते जाते लोगों के बीच ओर मौका पाते ही दबोच लेते हैं आपके  स्वतंत्र स्वर, वस्त्र, खान पान ओर विचारों को क्षीण कर देतें है आपके उत्साह, आंदोलन ओर हर आवाज को जो थोड़ा उनके लीक से अलग हटकर  ओर आप उस बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं  जिसका नाम है "लोग क्या कहेंगे" बस टीकाकरण के साथ साथ अब इन सबसे बचने की जरूरत है

बात तो अब भी कर लेते हैं हम

बात अब भी करता है वो फूलों ओर शायरी की नहीं हर बात में झलकती है उच्च्छवास ओर अफसोस जैसे मेरे होने का ग़म हो उसे फिर भी बात करता है फिर बातों में सिर्फ मेरा मजाक उड़ाता है मेरे जीने के ढंग पर चलने, रहने ओर सोने ओर सपनो पर जैसे उसने तय कर लिया हो बिना मेरी बुराई किए उसकी जिंदगी का एक भी क्षण पूर्ण नहीं हो रहा हो बात अब भी करता है वो हमसे  खयाल अब भी उसे ओर इस बात का ग़म भी कि ख्याल क्यों है उसको जितने जतन से खुद से दूर किया उसने  अफसोस इस बात का फिर भी है  क्यों कोई ओर पास है इसके अब हमारे बीच शब्दों की तलवारबाजी होती हैं पैंतरे बदले जाते हैं हर वक्त कभी इस बात को लेकर कभी उस बात का बहाना बनाकर  अब भी मिलते हैं हम फीकी चाय की कड़वाहट से बेस्वाद बदमजा करेले की सब्जी चबाते हुए  जैसे बहुत अफसोस हो उसे की हम उससे मिले बिना क्यों नहीं रह सकते  ओर फिर दुबारा अफसोस हो कि उसके बिना सांस  ही क्यों ले रहे हम

Kuch Bakaiti ham bhi kar lete hain

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बहुत दिनों से बहुत शराफत में बतिया रहे थे हम इंस्टाग्राम पर जहां पर बाक़ी सब लोग शराफत छोड़ के आते हैं। गिव मी अ ब्रेक यार। आखिर औरत हूं शरीफ घर की लड़की। नौकरी करती हूं लेकिन ये कैसे भूल जाऊ कि बिहारी हूं। बिहारी एक हद तक ही चुप रह सकता है। ओर जब बिहारी बोलता है तो छोड़ता है लेकिन बिहारन....भैया बिहारन सीधे दागती हाईनेस की चमड़ी रह जाए ओर तुम्हारी हड्डी झुलस जाए। ब्लॉग ब्लॉग खेलते खेलते थोड़ा ऑब्सोलेट फील हो रहा था तो मैने सोचा मिलेनियम वाले तो ऐसे भी बीच के हैं थोड़ा ये भी कर लेते हैं और थोड़ा इंस्टाग्राम पर आके मॉडर्न भी बन जाते हैं। तो चले आए इंस्टाग्राम पर। चैंप दी अपनी ब्लॉग वाली कविताएं एक के बाद एक। अब ये मीडियम थोड़ा ज्यादा इंटरेस्टिंग है विजुअल्स ओर इंटरैक्टिव होने के कारण। मतलब कि हमको ब्लॉग की आदत लगी थी पर netflix की नहीं क्योंकि netflix में हम सिर्फ मूक दर्शक हैं चुपचाप देखते रहो। बल्कि मुझे जब नींद नहीं आती तो मैं netflix देखती हूं अब इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि सिनेमा बोरिंग हैं। हमारी जुबान जितनी बड़ी है उससे बड़े हैं हाथ तो जहां पर आपका मंतव्य भी दिख रहा हो वहां मन...

इश्क का मोल

जाओ दुनिया में ओर भी जगह है तुम्हारे लिए जहां मोल ज्यादा लग जाए तुम्हारे प्यार का इन रास्तों में सिर्फ रुख सूखा इश्क मिलेगा हमें मालूम है उससे तुम्हारा काम अब नहीं चलता @gunjanpriya.blogspot.com

अब कविताओं पर भी नजर हैं उन लोगों की

अब कविताओं पर भी नजर हैं उन लोगों की जिन्होंने बेड़ियां डाली पैरों में पायल ओर बिछुए बना कर जंजीर जकड़े हाथों में चूड़ियां पहना कर सपनों को सेंसर किया भर भर कर सिंदूर, घूंघट ओर नकाब डाल कर लक्ष्मणरेखाएं खींच दीं दिन ओर रात के हिसाब के साथ अब कविताओं पर भी नजर है उनकी वो तौलते हैं तुम्हारी हर बात को  बिना किसी उलझन के जड़ देते हैं अपने बनाए हुए टैग तुम मुस्करा भर दो तो शक की निगाह से देखेंगे  तुम रो दो तो लाचारगी बता कर हंस लेंगे  तुम्हारी खामोशी को भी एक इल्जाम बताएंगे  मगर तुम्हारे शब्दों से डरते हैं वे क्यूंकि शब्द बेबाक हैं उनमें घूंघट नहीं शब्द नग्न सत्य है वे उन पर पर्दा डाल नहीं सकते शब्दों से टूटता है वो सारा छद्म ओर तिलस्म  जिसके सहारे राज करते आए हैं वे सदियों से  इसलिए अब कविताओं पर नजर है उनकी कि उन्हें रोक कर वो कायम रख सकें  परंपरागत पितृसत्ता ओर उसके थरथराते आडंबर

दुनियावी ओर हिसाब इश्क

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अब हमारा इश्क गुलाबी नहीं  किताबी नहीं ओर इन्कलाबी भी नहीं अब वो हमें गालिब ओर फैज के शेर नहीं सुनाता  अब ये दुनियावी ओर हिसाब बातें हमारे बीच होती हैं ओर नाराज़गी इस बात की कि उसकी अम्मा की जेठानी की बेटी के ब्याह का किस्सा मैं नहीं सुन रही  ओर हमारा ढीठपन देखो कि अब भी शायरी की बातें करते हैं