दिल्ली की रात के आगोश में नींद नहीं
लोग सवेरे के पहलुओ में छुपते हैं
इस शहर के लोग जाने क्यों सारी रात जागते हैं..
काला सफ़ेद हो जाता है नकली रौशनी के नकाब से
सूरज के उजालो से सफेदपोश बचते हैं
हर जगह फैला है झूठ का तिलस्म
यहाँ शब्द भी फरेब लगते हैं..
शेर नहीं शायरी नहीं सर्राफा बाजार है हर तरफ
हर जगह तिजारत जिस्म और जज्बातों की
शहर दिलवालों का ज़फर को भुला बैठा
अब रायसीना में भी मुर्दे बसते हैं....
2 comments:
I am contented knowing that still there is someone in delhi who is trying her best to recover delhi from comma(caused by emotional or sentimental lacuna).Hoping ur creation may sedate antagonists & rejuvenate synergists.keep it up...
शुक्रिया..मगर इस अँधेरे के साये दिलों के अंदर फैले है...बेहतर होता हरेक जगा इंसान अपनी रौशनी ओरों के साथ भी बाँट लेता..
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