विरह में पूर्णता

 नहीं इस एकाकीपन में उन तमाम लोगों को कोई दोष नहीं जिन्होंने हाथ पकड़ कर साथ चलना चाहा, यह मेरी नितांत अपनी व्यथा है . मैं उन सब खुशियों से परे होकर जीना चाहती हूँ जो एक आम हमसफ़र देना चाहता है . वे मेरी पलकों के आंसुओं में उलझ जाते हैं, सम्हालना चाहते हैं उन्हें मोतियों कि तरह , क्षण भर के लिए मै भी अपने अंतर्द्वंद को भूल जाना चाहती हूँ और डूबने उतरने लगती हूँ ख़ुशी कि उन लहरों में , जो सामने वाले के दिल से छलक छलक पड़ती हैं. एक भ्रम सा हो जाता है कि शायद यही मेरी आशाओं कि मंजिल है. 

पर भूल जाती हूँ कि मेरी ख़ुशी दुख का ही एक पर्याय है . मैं सुख के सीमित आँचल में बांध कर नहीं रहना चाहती. मेरा अंतर्मन उसी त्रासदी कि खोज  में भटकता है जो तमाम खुशियों को छिन्न भिन्न कर डालता है. अपने जीवन की सारी निधियां लुटा देने वाले साथी ठगे से रह जाते हैं कि शायद उनकी चाहत में कोई कमी रह गई ...

वे नहीं समझ पाएंगे मेरे इस भटकाव ...मेरा रास्ता ही मेरा मुकाम है मुझे सिर्फ चलते जाना है ..अकेले, सारी राह आंसू बटोरते हुये ही सही क्युकि सम्पूर्णता शायद एक असमभव का पर्याय है और उस अनुसंधान में उससे कम कुछ भी मंजूर नहीं ...

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