May 31, 2011

एक शाम ठिठुरती सी


वो शाम बहुत ठंडी थी...घर के अन्दर हीटर की गर्माहट थी पर बाहर सर्दी की कंपकपी ..फिर भी घर काटने को दौड़   रहा था..मेरे उसके बीच सवेरे से एक शीत युध्द चल रहा था और  उसने मुझे अपना सामान ले कर निकल जाने कहा था.. पर ऐसा वो कई बार कर चुका था, इसलिए बात को सीरियसली न लेकर मैं इस बात का इन्तजार कर रही थी की थोड़ी देर में तो माफ़ी मांगेगा..और  फिर पीछे  से किचन आकर  वो मुझे अपनी बांहों में समेट  लेगा 
पर उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.. फिर मैं बच्चे को गोद में लेकर पार्क  चली  गयी  ..पार्क  में बहोत देर तक चुपचाप  बैठी  रही..सामने  कुछ बच्चे खेल  रहे थे, मेरे साथ बहन  का लड़का  भी था, वो भी उन बच्चो में शामिल  हो गया. उसे इस बात का कोई आभास  नहीं था, की उसकी मौसी  के मन में कौन  सा तूफ़ान  चल रहा है 

जब  अँधेरा  हुआ तो मैं वापस   घर पहुची, घर मैं कदम रखते ही उसने फिर से पूछा, तुमने अपना सामान पैक किया? मै बिलकुल बिखर सी गयी...तड़प कर पलटी और उसकी आँखों में झाँक कर देखा...नहीं कुछ नहीं था वह ..वो प्यार, वो वादे , वो जनम  भर  साथ रहने  की ख्वाहिशें ...सिर्फ एक छटपटाहट  जो मुझसे दूर होने के लिए थी...वो जिससे मैं सबसे ज्यादा  प्यार करती थी, वो जिसके लिए भाई बहन, माँ- पापा सब पराये नजर आने लगे थे; वो जिसकी  बातों  के आगे  पढाई , करियर , वर्ल्ड टूर  का मेरा सपना सब बेमानी हो गया था...वो सिर्फ एक चीज  की विनती करता नजर आया..मुझसे दूर चली जाओ  ...उफ़ !!!!

अब कुछ भी नहीं था वह रुकने के लिए..मायके  का मान  सम्मान, प्यार दुलार  पहले ही छोर आई  थे..ससुराल  ने कभी दिल  से अपनाया  नहीं..और आज जिसने कभी हाथ थमा  था, उसने दूर जाने की ख्वाहिश  जताई  थी..मैंने घर के दमकते  उजले  संगमरमर  फर्श  को देखा...दीवार  पर लगी  बेटी की तस्वीर  देखि  जो दो तिन  दिन पहले निकलवाई  थी..टेबल  पर रखी  वो तस्वीर  भी देखी  जो एक हफ्ते  पहले हमने इंडिया  गेट  पर ली  थी..पर आँखों में आंसुओ  के भरे  होने से सबकुछ डबडबा  सा  गया..

एक  झटके  से मैं निकल जाना चाहती  थी, फिर रसोई  में कदम फिर से ठिठक  गए, एक एक बर्तन  जैसे मुझे उलाहना  दे  रहा हो...दमकते क्रोकरी सेट, बर्तन,  छोटे  बड़े  डब्बे, पानी  की बोतल, पापा  का दिया मखान , अचार, और सास की दी हुई गाँव  की सौगाते ..जैसे मेरा रास्ता  रोक  रही थी...बेटी  जब ससुराल  जाती  है तो वहां  से उसकी अर्थी  ही निकलती  है बाहर ..कट  कट , नॉट  ओके ..जब तक संभव  हो सबसे तालमेल  बैठा  कर चलना ...सास की बातों का बुरा  नहीं मानना ...तुम्हारी  शादी के बाद मैं  शान्ति  पूर्वक  आखें  मूँद  सकूँगा ..[और वो आखें  मूँद  चुके  थे..माँ शादी से कुछ दिन पहले ही ओउर पापा शादी के डेढ़  साल बाद]..
फिर याद आई  एक और बात..पर वो सबको रास  नहीं आयी  थी  किसी ने बाद में भी विश्वास नहीं किया था की पापा ऐसा भी कह सकते थे..आत्मसम्मान  की रक्षा  अंतिम  सांस तक करना..जिस  दिन लगे की अब  वो संभव  नहीं, मेरे पास आ जाना .. पर अब  कहाँ ..अब  वो भी नहीं ..जाऊं  तो जाऊं   कहाँ ..

मैंने एक पुराना  कुरता  डाल   रखा था और  एक पुराना  स्वेटर  भी..बच्चों को उठाया .इन  बच्चों   का कोई दोष  नहीं था..मै मरना  भी चाहू  तो मुझे पहले इन  बच्चों को सुरक्षित  कही पहुचाना  होगा ...कहाँ बस ये नहीं मालूम
..जब तक मै कपडे ले रही थी छोटी बच्ची  लुढ़क  कर वापस अन्दर के कमरे  में चली गयी..उसका  पिता , जो दुनिया  में उसे सबसे ज्यादा  प्यार करने का दम भरता  था, वह बड़ी बेतकल्लुफी से खा  रहा था, वही
खाना जिसे खाने का इसरार करने पर उसने जोुछ  देर पहले मुझे जलील किया था, की मैं खाना बना के कोई एहसान नहीं करती....घोर आश्चर्य , मुझे लगा वो बेटी को गोद में उठा लेगा और नहीं ले जाने देगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, फिर वो बाथरूम गया और मैं एक चोर की तरह चुपके से अन्दर वापस गयी, और गहनों का डब्बा उठाया. मेरे पास सिर्फ तेरह रूपये थी..इतने में हम कही नहीं जा सकते थे..दो दो बच्चो के साथ रहते मैं खाली हाथ नहीं निकल सकती थी, ओउर बड़ी  दीदी के दिए कान के बूंदों के अलावा मैंने कुछ नहीं पहन रखा था..
गहनों के डब्बे से मैंने  वो सबकुछ निकाल लिया जो मुझे नहीं लेना चाहिए था, सास की दी अंगूठी और झुमके, जिसे पहनाने के बाद वो मुझे बहोत देर तक उनका दाम बताती रही थी ..पापा का  दिया  सोने का लाकेट  और  पायलें ..और वो सबसे बड़ी चीज जो मुझसे कोई नहीं चीन पाया था..मेरा स्वाभिमान..मेरी पढ़ाई..ये वो दहेज़ था, जिसका इनलोगों की नजर में कोई मूल्य नहीं था पर मेरे लिए ये अनमोल था..
.....
मैंने बाहर निकल  कर एक रिक्शा रोका..दूर दूर तक को जान पहचान का नहीं था..वैसे भी मैंने तो सबको छोड़  दिया था अपना प्यार पाने के लिए फिर मेरे आस पास कोई जान पहचान का कहा से होता...रिक्शे पे बैठते वक़्त एक बार भी मन में नहीं आया की मुड   के देखूं..क्युकी देखने के लिए कुछ था ही नहीं...कुछ खोने का बोध तो तब होता जब उस रिश्ते में कुछ पाने का अहसास बचा होता..दिन रात इसी ग्लानि से मरती थी की मैंने अपनी जिद पूरी करने के लिए एक ऐसे लड़के  से शादी कर दी जो मुझसे दूर जाने के लिए छटपटा रहा था..

चलो आज अंत उन सब पछतावों का..आज अंत उन सपनों का ..जो उससे जुड़े थे और उसी के साथ ख़त्म होते थे..उस एहसास का जो कभी तकिये के बदले उसकी बांहों पर अपना सर रखने के लिए होते थे...उन उमीदों का..जिनके नहीं पूरा होने पे भी ये यकीं कर चल रही थी एक न एक दिन वो सारी गलतफहमियों को भूल कर मुझे वैसे ही प्यार करेगा जैसे पहले करता था..एक दिन तो उसे याद आएगा की ये रास्ता, मेरे पिता ने नहीं, मैंने और उसने साथ मिल कर चुना था..ये शादी किसी की साजिश नहीं थी वो निर्णय था, जो हर स्वाभिमानी लड़की अपने प्यार को चुनते वक़्त लेती है......

रिक्शेवाले को मैंने अभी तक कुछ कहा नहीं था की मुझे जाना कहा है..मुझे खुद भी पता नहीं था...थोरी दूर जाने पर हमने एक ऑटो रोकी और  रिक्शे से उसमे शिफ्ट हो गए..मेन रोड पर आकर मैंने ऑटोवाले को कहा नोर्थ डेल्ही ले चलो...
एक परिचित जिससे मेरा हमेशा छतीस का आंकड़ा रहता था...की मदद से हम लोग चार दिन एक ऐसी जगह रहे जहाँ की याद आती है तो रोना आ जाता है..धूल में लिपटा हुआ एक कमरा जो काफी दिनों से बंद था.. बड़ी मुश्किल से मैंने सफाई कर थोडी सी जगह बनाई जहा हम तीनो बैठ सके, बच्चों को कुछ बिस्किट  खिलाया और फिर उस सीमाहीन छित्तिज़ की और देखा जिसके पार जाने का कभी सपना देखा था बचपन में...


 




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