चाहे ठोकर मिले या मंजिल..

कुछ लोग बड़े आराम से चुन लेते है कि क्या बताना है, क्या छुपाना है, पर शायद ये विद्या मैंने सीखी नहीं, या सीखना आया नहीं..गुरु जी ने कहा जिन्दगी खुली किताब की तरह जियो, पर शायद ये बताना भूल गए की किताब के उन पन्नो को उन लोगो के सामने बंद कर दो, जो पढने की बजाय, शब्दों में आंसू ढूंढने लगे ओउर पन्नो की खूबसूरती से खेलने लगे...

कदमो की आहटे कहती हैं, ये मेरे खुद के हैं, मेरे लिए कोई रास्ता पहले से नहीं बना न कोई मंजिल है तयशुदा...खुद ढूँढना होगा मुखं अपना, खुद बनाना पड़ेगा मुकद्दर भी..
शायद ये भी उतना मुश्किल नहीं होता अगर मैं नियति को बिलकुल अस्वीकार कर देती, पर कही न कही, मैं जाग उठी फिर...अन्दर का उबाल, रक्त में जमे स्वाभिमानी संस्कार विद्रोह कर बैठे..नहीं मैं लकीर की फ़कीर नहीं रह सकती...
सवाल ये नहीं की रास्ता कौन सा है..सवाल ये है, रास्ता चुनने का अधिकार आपके पास है या नहीं...
बहुत अफ़सोस की ये रास्ता मैंने खुद नहीं चुना था...हाँ अंतिम वक़्त पर कदम उठाते वक़्त सिर्फ इतना सोच पाई की मेरे लिए रास्ते चुनने का हक दुबारा किसी ओउर के हाथ में नहीं दूंगी....चाहे ठोकर मिले या मंजिल...

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