Dec 23, 2011

तुमको छू के गुजरना

 उम्र की चिट्ठियाँ जला रही हूँ
इस सर्द शहर के सर्द मौसम में
मुझे कहाँ मालूम था रंगीन बस्तियां इतनी अँधेरी होती हैं...

बड़ी मुद्दत पे उठाया है खुद से उस पार जाने को कदम
न मंजिल पता है न तय रास्ता
चलना ही तमन्ना थी और हिम्मत एक मुकाम
क्या पता इन्ही में रौशनी हो..

तुम धूप हो परछाई हो तुम हो हर नयी उम्मीद
तुम रात हो, बुझती बत्तियां हो, तुम ही हो रोकती जंजीरें
हार तुमसे, जीत भी तुमसे ही, यही सोच कर उलझती रही
हाँ ये कहा मालुम था तुमको छू के गुजरना भर था ऐ जिन्दगी



No comments: