सृजन की भोर

रात नींद नहीं आयी सृजन की भोर है शायद
कुलबुलाते शब्दों के शोर ने सोने नहीं दिया
नींद में हम नहीं जी पाते उन अनुभूतियों को शायद

करवटों में लिपटती रही स्मृतियाँ और अधूरे स्वप्न 

यहाँ हर जगह धुंध है अंधेरों की
फिर भी खुल गयी मानो रौशनी की खिड़की
पौ फटने से पहले ज्यो दिखा गया है राह
कोई भोर का तारा........हाँ मेरे शब्द..
मुझे मालूम था मेरे शब्द लौटेंगे जरुर
हाँ इस इन्तजार  में कई एहसास जी लिए 
उम्र रुलती रही रिश्तो के अकेलेपन में पूर्णता को ढून्ढती      
आज शब्द मिल गए है वापस
उसी उबाल और तूफ़ान के साथ जिससे मेरी रूह को मिलती है पनाह..
जो छूट गए है पीछे कुछ अहसास और स्वप्न
उनपे कोई इख्तियार नहीं...रंज नहीं
क्योकि शब्दों की कलम को दुःख की स्याही ही चला पाती है..
  
 

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