मरने का भी गम किसलिए

न कोई हो तुम्हारी सुनने वाला
न सुन पो तुम किसी की
अगर तन्हाई हो तो ऐसी हो
वरना उदासी किसलिए..

गर हाथ में मचलती हो कलम,
आँखें रो नहीं पातीं
दिल की खामोशी का समंदर
तूफ़ान मचादे कागज़ पर
ऐसी लहरें जो हो जुबां पर
तो बेकसी किसलिए..

नज़र मिलते ही छुप जाएँ जो लोग,
बातों ही बातों में टकरा के बेबात मुकर जाएँ जो लोग,
गर जज़्बात भी छुप जाएँ नकाबों में..
तो बेपर्द रोने का गम किसलिए..

न मुहब्बत, न वफ़ा की ख्वाहिश..
न इन्तजार , न पहुँचने की बेताबी.
अगर जीना हो इतना बेतकल्लुफ..
तो मरने का भी गम किसलिए...

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