एक अलसाई दोपहर- इंडिया गेट पर
बहुत दिनों के बाद आज अकेली पहुच गयी इंडिया गेट के पास. शायद गलती से-सही जगह..और गुनगुनाती धुप में हरी घास पर अकेले चलते हुए एहसास हुआ -- न जाने कितनी चीजों के अपने साथ होने का..सामने वो इमारते जो जाने कितने वर्षों से इस देश के अस्तित्वा का प्रतीक बनी हुई कड़ी हैं..स्वतंत्र, स्वाधीन गणतंत्र..
..और झलकती हैं गणतंत्र दिवस के परेड की झांकियां..जिसे देखने न जाने कितनी बार हम सवेरे सवेरे कॉलेज हॉस्टल से इंडिया गेट की तरफ निकल पड़ते थे..
मेट्रो स्टेशन से निकलती हूँ....मेट्रो..का होना भी कितना सुखद है. जब कॉलेज के आखिरी दिन थे..२००४ में मेट्रो आ चुकी थी पर सिर्फ रेड लाइन चली थी वो भी तिस हजारी से शाहदरा तक...एक बार टिकट लिया हमने भी ..जॉय राइड --आनंद यात्रा का... तब दिल्ली में लोग खासकर बाहर से आये पर्यटक, लाखों की तादाद में रोज पहुँचते थे मेट्रो की सवारी करने..मानों मेट्रो पर्व मना रहे हों. टोकन लेने की लाइन इतनी बड़ी थी कि प्लेटफार्म पर शायद ही अंटे..बस एक हसरत लिए सब..ऐ सी वाली फर्राटेदार मेट्रो रेल की सवारी करनी है...
धीरे-धीरे दिल्ली की रोजमर्रा की कशमकश का अनिवार्य हिस्सा बन गयी मेट्रो रेल ..आज चाहे गुडगाँव हो या नॉएडा , मेट्रो ने हर जगह जाना आसान बना दिया है. या कम से-कम पसीने से तर-ब-तर हाथ बस की हेन्डल पर फिसलते फिसलते बच गए हैं...बाकी भीड़ में कुछ ख़ास फर्क नहीं पडा हैं...भई दिल्ली है दिल्ली..राजधानी जो ठहरी! ..कल ही माननीया मुख्यमंत्री जी ने इंडिया टीवी के एक प्रोग्राम "आप की अदालत" में कहा-- पांच लाख लोग रोज आते हैं यहाँ , चमकती दमकती दिल्ली में अपनी अपनी किस्मत आजमाने...तो भीड़ तो रहेगी ही..और रहेगी गरीबी, भूख, बेरोजगारी..भीखमंगे , और भूख भी..-बात में दम है!!
..आगे इण्डिया गेट, पीछे रायसीना हिल पर दमकते देश की शान --नार्थ ब्लोक और साउथ ब्लोक..बीच में भव्य राष्ट्रपति भवन, जहां से भारत का वर्तमान और भविष्य तय होता है...आस-पास बिखरती सड़कें जाने कौन कौन से बड़े बादशाहों के नाम पर-- औरन्ग्जेब रोड, अकबर, फिरोजशाह ..एक तराह से जिन्दगी के अंतिम सत्य को जताते हुए कि आप कितने भी बड़े बादशाह हों, कितनी भी बड़ी हुकूमतें चला चुके हों, एक दिन..एक दिन वक़्त का पहिया आपको रोंद कर आगे बढ़ जाता है...
..अच्छा लग रहा है अलसाई धुप के साथ चलना.. बहुत मुश्किल से मिला है ये कीमती दिन--बेकारी का..खली जेब ..भरा पेट..सवेरे से सी सी डी में एक कॉफ़ी, आन्ध्र भवन की थाली डकार चुकी हूँ..अब देश की सबसे महत्वपूर्ण सड़क--राजपथ पर बेतकल्लुफी से चलने का सुख..जिन्दगी इससे अच्छी तो हो ही नहीं सकती..
पहली पहली नौकरी लगी थी नयी दिल्ली के इसी इलाके में ..आकाशवाणी..पटेल चौक मेट्रो से गुजरते कई बार इण्डिया गेट के साए में कई शामे बिताएं.यहाँ की शाम की रंगीनियाँ कुछ और होती हैं..भीड़ में अकेला होना..और अकेलेपन के अहसास के साथ अकेला होना अलग है..दिसंबर आने को है..वैजयंती के पीले फूल..मेरी पीली पीली साड़ी को देख मुस्करा रहे हैं..हवा कभी धीमी तो कभी तेज होकर खुद के होने का अहसास कर देती हैं..दूर कहीं पानी की बोतले बेचता एक लड़का, पास में एक बूढ़े अंकल पाइप से फूलों को सींचते हुए...छिटपुट..इधर-उधर कुछ लोग..मैं अकेली कहाँ हूँ..
घास पर राजपथ क किनारे किनारे चलते नजर पड़ती है..एक वयोवृध्ध पिता अपने पुत्र के साथ चादर बिठा धुप का आनंद उठा रहे हैं, पास ही उनकी कार भी पार्क की हुई थी..आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी हुई..इस भागम-भाग भरी जिन्दगी में भी किसी बेटे के पास बेकार बूढ़े बाप के लिए इतना समय है..
..जाने कितने उपन्यासों में..मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, सुरेन्द्र वर्मा और कई अन्य लेखकों के नायक- नायिकाओं ने इण्डिया गेट के साथ कितने एह्स्सास जियें हैं..तब लाइब्रेरी के किसी कोने में बैठ उन किताबों को पढ़ते पढ़ते मन मचलता था..मैं खुद कब बनुगी उन कहानियों की नायिका..कहाँ पता था..कि इण्डिया गेट के विशाल वजूद के पीछे छुपा हैं जाने कितने बिछड़े जोड़ों का दर्द ..कई कहानियों के अंत भी..टूटते रिश्तों की जकड ..सब छूटते चले जाते हैं..यहाँ वहां बिखरी चीजों की तरह , कहीं दूर भागती बसों और कारों की भीड़ में गुम होकर रह जाते हैं....
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