बदलते आयाम

जब पास की पहाड़ी से गुजरती, ढोर-डंगर चराती बंजारनो को देखती हूँ तो मुझे निचले मैदान का वो फैलाव याद आता है...बांस के वो झुरमुट मुस्कराने लगते हैं, जिनमे छुप डूबने लगती थीं जल्दी ही किरणें, ह्रदय में शूल की तरह बिंधने लगती थी आम की मंजरियों के बीच कोयल की कूक और एक व्यंग्य सा लगता था पपीहे का विरह गायन!
...मैं ऊँचाई और आसमान खोजती थी, जबकि आँखें हरियाली में जी भर कर डुबकियाँ लगाने लगतीं, मै चट्टानों की कठोरता चाहती. मैदानी दिलों की नरमियत मेरे गले में हड्डी की तरह अटक जाती थी...
मांझी की चल चल की तेर भी जब नहीं लुभा पायीं मेरी ख्वाहिशों को तो खुदा ने भी उन्हें बख्श दिया और अब -मेरी ख्वाहिशें अंजाम में तब्दील हुईं--

नदी का रास्ता कुछ टेढ़ा हो गया अचानक,
और नावें खो गयीं उसकी पुराणी चल में,
लड़खड़ाने लगी धार गुनगुनाहट को छोड़ कर---
ऊंची -नीची जमीन पर.

आँखों का स्वप्न बदला. सामने नहीं थे अब बासंती मंजर, जिनमे डोला करता था अमराई का पत्ता पत्ता. अब धुन्धती रहती हूँ मैं पत्थर के एक-एक टुकड़े में आवाज..कृष्णा नदी की चौड़ी छाती पर आलमाटी बाँध का पानी कहर बन कर गरजता रहता है लगातार..जिसे देख भर लेता है मुस्करा कर ऊपर से गुजरता बादलों का काफिला. बांध की ओर से आनेवाली सर्द हवाएं अपनी फुहारों से देना चाहती हैं रिमझिम बारिश की तृप्ति.

आह..अब मेरा मन ढूंढता फिर रहा नाखुदा को, तड़पना चाह रही हूँ मैं भवरों के बीच सफीना बनने के लिए, उलझने लगी हूँ कैक्टस के कांटो से गुलाबों की खोज में..जाने क्यों ये नंगे पहाड़ अहसास देने लगे हैं --मैदान ही था  आकाश का दूसरा छोर शायद...!

१९ सितम्बर १९९७.
जवाहर नवोदय विद्यालय, आलमाटी
बीजापुर, कर्नाटक 

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