Nov 4, 2015

आसंग

तुम्हारे कमरे में
हर चीज अपनी लगती है...
गन्दी चादर...
टेबल पर राखी बेतरतीब किताबे ..
कुर्सी पर पड़े तुम्हारे उलटे मौजे ...
किचन में जूठी चाय की प्यालियाँ और थालियाँ..
और अभी अभी उतारी तुम्हारी शर्ट,
जिसमे तुम्हारे पसीने की गंध भी है..
                                         
                        हाँ, मुझे अहसास है कि ये मेरा कमरा नहीं..
                         कि वक्त ढलने से पहले मुझे चले जाना है...
                          की घडी की सुइयां हमेशा डिगाती रहती हैं,
                           यहाँ के अपनेपन को अपनी रफ़्तार से .
                       
फिर भी कुछ पल के लिए मैं भूल जाती हूँ ..
मेरी नजर डूब जाती है..चीजों को करीने से रखने की होड़ में ..
हर धुल भरे कोने में ढूँढने लगती हूँ मैं अपना नाम
जब फ़ैल जाती हैं तुम्हारी पनीली आँखें कुछ पल के लिए..
तुम्हारे कमरे की तरह..
और इस कमरे की हर चीज मेरी अपनी लगने लगती है..
तो मैं भूल जाती हूँ..और सब बातें ...
घडी की टिकटिक  और चीजों के बेगानेपन को ..
और सुबह से शाम की उहापोह को..
तुम्हारी आँखों का पानी पी जाता है...

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