पूरब जाग रहा है

धुएं के बीच ओसारे से उठती
मक्के की रोटियों की गंध
खलिहान की और बढ़ रहे हैं पैर,
टुनटुन करती बैलों की  जोड़िया..
तीसरे पहर के बीतते बीतते
बांग देते मुर्गे
कहते हैं...पूरब जाग रहा है.

फूटपाथ पर फ़ैल रही है रौशनी
रात की धर्मशाला
बन जाती है सुबह में सड़क
रौंदती हैं कारें रिक्शों का संतोष
ठेले खींचते पीढ़ियों के जख्मी हाथ
कहते हैं पूरब जाग रहा है..

गलियारों से उठती है आवाज़,
खेतों से निकल रही चिंगारी,
फूटपाथ से सड़क तक फ़ैल रही है आग,
बजा रहें हैं बिगुल,
शहरों की मांए और बैलों के भाई
थर्राते हुए आतंक के खंडहर
कहते हैं...पूरब जाग रहा है..

Comments

Ashutosh Kumar said…
This comment has been removed by the author.

Popular posts from this blog

अच्छा लगता है !

दिल दिमाग़ और दर्द