चार लम्हे सत्रह साल

तो क्या हुआ सफर जो अधूरा  रहा
शौक आशिक़ी का कर गए तुम जाते जाते

तुमने खिलाये तबस्सुम होंठों पर
सजाये गीत  बिछती चांदनी के
शब्द ओस बन पिघलते रहे
नज़्म सजाते रहे रात के तुम जाते जाते

हसरतों की  लम्बी चादरें
तन्हाईयों को भिगोती  रहीं
खिल से उठे शर्मा भी गए
कुछ भरम मे जीने का देते रहे तुम  जाते जाते

लमहों को गुजरना ही था
अश्क़ बनके बह गए
फूल गीतों के काँटो से भर गए तुम जाते जाते

सिमट गयीं चांदनी और फूलों की बारात
तुम्हारे साथ साथ
दे गए कुछ नये ग़म तुम जाते जाते
बातें  ख़ुद जो नहीं कहीं कभी जफ़ा की
ग़ैरों से सुना गए तुम जाते  जाते

सत्रह सालों को सत्रह लम्हों मे जिया तुमने
और हम लम्हों को जिंदगी बना बैठे
ना थे वादे और ना शिकवे शिकायत
शूल  से चुभ  गए मग़र तुम जाते  जाते

Comments

Popular posts from this blog

अच्छा लगता है !

दिल दिमाग़ और दर्द