Jun 21, 2018

चार लम्हे सत्रह साल

तो क्या हुआ सफर जो अधूरा  रहा
शौक आशिक़ी का कर गए तुम जाते जाते

तुमने खिलाये तबस्सुम होंठों पर
सजाये गीत  बिछती चांदनी के
शब्द ओस बन पिघलते रहे
नज़्म सजाते रहे रात के तुम जाते जाते

हसरतों की  लम्बी चादरें
तन्हाईयों को भिगोती  रहीं
खिल से उठे शर्मा भी गए
कुछ भरम मे जीने का देते रहे तुम  जाते जाते

लमहों को गुजरना ही था
अश्क़ बनके बह गए
फूल गीतों के काँटो से भर गए तुम जाते जाते

सिमट गयीं चांदनी और फूलों की बारात
तुम्हारे साथ साथ
दे गए कुछ नये ग़म तुम जाते जाते
बातें  ख़ुद जो नहीं कहीं कभी जफ़ा की
ग़ैरों से सुना गए तुम जाते  जाते

सत्रह सालों को सत्रह लम्हों मे जिया तुमने
और हम लम्हों को जिंदगी बना बैठे
ना थे वादे और ना शिकवे शिकायत
शूल  से चुभ  गए मग़र तुम जाते  जाते

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