कृष्णा नदी के किनारे


मेरे सामने है दूर तक फैला
कृष्णा नदी का पानी
ऊपर के आसमान से  कहीं दूर जाकर  मिलता हुआ
और मैं...
कृष्णा और आसमान का वो जुड़ता  हुआ कोई छोर ढूंढती रहती हूँ

लहरें देखने की इच्छा नहीं होती मेरी
हवा के थपेड़ों में कहीं मेरा मुकाम न खो जाये
बस इसी फ़िक्र में लगी रहती हूँ

मेरे इर्द गिर्द बिखरे हुए हैं
शंख, छोटे बड़े पत्थर और टूटी हुई सीपियाँ
और मैं उन्हें छेड़ते रहती हूँ ...

पर मैं जो  ढूंढती रहती हूँ
उन्हें क्यों छुपा लेती है ये पर्छैयाँ
इसे जान लेना चाहती रहती हूँ

मैं मैदानों का बाशिंदा हूँ
मैंने समंदर नहीं देखा
नदी कि लहरों में ही डूबती उतराती रहती हूँ

एक अनोखी चाह लिए
लहरों में मोती ढूंढती रहती हूँ
८ जनवरी १९९८


Comments

Popular posts from this blog

अच्छा लगता है !

दिल दिमाग़ और दर्द