रेशम की डोर

 कभी कभी हमें लगता था, ज्यो तुम्हे  पहले भी कहीं देखा हो 

पहले भी कहीं हम  मिले हों, 

----- ज्यों सरयू के किनारे, 

चित्तोर के दुर्ग में, 

हुमायूँ के मकबरे में 


रेशम की चमकती डोर में , एक झलक मिलती थी स्नेहिल 

अब जाना वो तुम थे...

स्कूल की दीवारों से जुड़े खून के रिश्तों से परे 

भाई शब्द का अर्थ बताने वाले.. तुम थे 


प्यार के मासूम बंधन से कौन बंधा रह पाता है 

बंद  लिफाफों में भरे सूरज और पहाड़ों के 

अधूरे चित्रों में कौन रंग भर पाता है  

शिवाजी स्टेडियम से लोटस टेम्पल तक 

तुम आओ हम सब कर लेंगे का वादा करने वाले भी तुम थे ....

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