जहाँ सिर्फ दूरियों को रहना था।
ना खैरियत पूछी न हाले दिल अपना कहा
ना जाने क्यों फिर बेमुरव्वत ही मिलना था।
उसी के नाम से अब भी निकलते हैं आँसू
कि जिसके नाम से मुहब्बत का हर ख़्वाब ढलना था।
फ़ितरत उनकी बेरुखी की हमारी आरजुओ पर भारी हैं हमेशा
हमही से मुखातिब हो उन्हें हमे ही रुस्वा करना था।
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