वो चाय के साथ यादों के आसंग बनाने नहीं आया था
न बेगम अख्तर के गाने सुनने थे बगल ने बैठ कर
न गाड़ी सही से चलाने की नसीहत देनी थी
इस बार वो उन वादों को फिर से दोहराने नहीं आया था
जिनकी फेहरिस्त मैने जुबान पर रट हजारों ख्वाहिशें पाली थीं
इस बार वो बहुत चौकन्ना आया था
हालांकि अभी भी ये बात जनवरी के धुएं भरे कोहरे में छुपी सी है कि आखिर वो क्यों आया था
हम दो शुतुरमुर्ग अपनी अपनी खाल में खुद को छुपाए रहे रेत में सिर घुसा कर
इस बार हमारे बीच विचारों की जटिलताएं बहुत गहरी दूरियां बन गई थीं
इस बार हमने साथ चाय भी नहीं पी
ओर आखिरी चाय जो उसके जाने के बाद
उस जूठी कप में मैने पी उसमें कोई स्वाद नहीं था ....
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