कामगारों की बस्ती

ये बस्ती है कामगारों की
जुबान चलती हैं मशीन से ज्यादा 
कतर कतर कतर कतर
और फिर कुछ खटर खटर भी 
बॉस की चुगली बड़े बॉस से फिर उसकी चुगली उससे भी बड़े बॉस से
आत्म संतुष्टि सिर्फ इसी में है कि हर बॉस के ऊपर कोई ओर है

ये बस्ती कामगारों की
नहीं मिलता कोई अतिरिक्त वेतन,
नई हैं इनसेंटिव्स, पदोन्नति या प्रेरणादायक सम्मान कोई
इन कामगारों का क्या है
ये डिजर्व ही नहीं करते होंगे कुछ भी
अरे ये तो जड़ विभाग हैं इन्हें बस काम दो ओर काम
ताकि इनकी जुबान कम चले
जब चलें तो इनकी नजर नीची हो

ये बस्ती कामगारों की
कुचल दो इनके अरमानों को विरोध करने की हिम्मत न बचे
लड़ाओ इन्हें बटेर ओर तीतर की तरह 
आखिर बोरियत दूर करने के लिए कुछ तो होना चाहिए
लगाओ इनकी ड्यूटी रात के १२ बजे सुबह के चार बजे ओर शनिवार ओर इतवार को भी।
पता तो चले इन्हें भी आखिर इतनी बड़ी संस्था में कम करने का सौभाग्य मिला है
थोड़ा ओर मजा लेते हैं उन नियोजित ओर गैर नियोजितों को भी तुगलकी फरमान देकर
इनकी निजी जिंदगी पहले ही कोई औचित्य नहीं रखती
न उनका स्वास्थ्य न उनकी मुसीबतें न उनका वेतन
न ही अस्तित्व हमारे कॉरपोरेट रिस्पांसिबिलिटी में कही मायने रखता है

ये बस्ती कामगारों की 
फिर भी क्यों मुस्करा लेते हैं
अरे देखो इन्हें कोई बहाना तो नहीं मिल गया जीने का
आओ छीन लेते हैं इनके आज़ाद ख्याल
इनके कपड़े पहनने ओर सपने देखने के ढंग भी
काम सिर्फ काम सोच पाएं ये कामगार 
इनकी लक्ष्मण रेखाएं खींच देते हैं इतनी संकुचित 
कहीं से भी  कोई गंध न आ जाए क्रांति की 


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