मुझे अब संपूर्ण विराम की जरूरत है....

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ऊब चुकी हूं धीरे धीरे
खोखली हंसी अजनबियों की भीड़ में ओढ़ते हुए,
किसी की दुष्टता सिर्फ इसलिए नजरअंदाज करते हुए 
कि वक्त हर किसी का जवाब होता है

ऊब चुकी हूं रेंगते कीड़ों की तरह लालची निगाहों से
जो साड़ियों में लिपटे वजूद आंखों से नोच देना चाहते हैं
सही ओर गलत के घृणित अंतर अब इस तरह तार तार हैं 
किसी को कुछ भी नहीं कह सकते हर बात पर सिर्फ भावनाएं जब्त की जा सकती हैं

ऊब चुकी हूं  उधार के शब्दों
 ओर पड़ोसियों की अतिशय सदाशयता से बच बच निकलते
ओर बिखरे बिखरे आधे अधूरे टूटे टुकड़ों में व्यक्त रिश्तों से 
ओर चाशनी में लिपटे व्यंग्योक्तियों से 
 मुझे अब संपूर्ण विराम की जरूरत है....

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