beintahan shikayten
तुम....
निभा नहीं सकते इसलिए छोड़ना चाहते हो
पर कहीं ओर देखूं ये तुम्हे बर्दाश्त नहीं
किसी ओर की दरकार हो ये तुम्हे बर्दाश्त नहीं
कोई ओर मेरे सपनो में, दुख में दर्द में शामिल हो
ये भी तुम्हे गँवारा नहीं
हाथ बढ़ाना चाहते हो पर साथ नहीं
साथ होना चाहते हो पर बंधन नहीं चाहिए
ओर मेरी जिंदगी की हर बात गलत है
कहकर मुझे बदलना चाहते हो
पर ये बात कहीं तुम्हारी जिंदगी न बदल दे
इस बात से डरते हो
अरे बता तो दो तुम चाहते ही क्यों हों
ओर चाहते क्या है
तुम्हे मेरी कविताओं से भी शिकायत है
क्यूंकि वो निहायत ही बेपर्द हैं
तुम जो दुनिया के तमाम रिश्तों की बुनियाद पर सवाल उठा सकते हो
पर कोई तुम्हारी परिभाषाएं ओर परिधियों को पूछे
तो तुम मौन हो
तुम जिसे रोटी बेलने का शऊर नहीं
हमारी रसोई में निशान ढूंढते हो
तुम जिसे बंधन समझते हो हमारे यहां उसे परिवार कहते हैं
तुम इतने दुराग्रही कैसे हो सकते हो
या तुम्हारे तमाम नर्मियां सिर्फ खुद के साथ जुड़ी हैं
ओर दूसरों के लिए पूरे उत्तर प्रदेश की व्यंग्योक्तियाँ ले आते हो
आर या पार की भाषा कब समझोगे।
प्रेम बढ़ सकता है उसे आधा या पौने करना संभव नहीं
तुम्हे संभावनाओं को खत्म कर देना चाहिए क्योंकि तुम उन्हें नहीं चाहते हो
ओर फिर बिना औरतों के औरतपन पर सवालिया निशान दागते हुए
बिना खुद को मसीहा, मांझी ओर सुधारक समझे
खुद को सिर्फ एक मर्द स्वीकार लेना चाहिए
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