कितनी आज़ादी
औरत को खुल कर लिखने की भी आजादी नहीं
तुम उसे बेवफा कह दो, बेमरौवत, ओर न जाने क्या क्या
एक बार मुस्कुराएगी चूल्हे की तरफ मुंह फेर लेगी
खोलती दाल की भाप में
चेहरे पर भी पिघलता हुआ सा कुछ गिर जाएगा अनायास
फिर एक प्याज उठाकर कहेगी उफ्फ बहुत तीखी गंध है इसकी
यकीन मानो औरत की तरह प्रेम करना मुश्किल है
उसने आंचल में सिर्फ दूध ओर आंखों में पानी नहीं समेटा
जज्बातों और सपनो को भी चूल्हे की लिपाई करते वक्त पोंछ दिया है
तुम सिर्फ कविता लिखने के लिए इश्क ढूंढोगे ओर
वो खुद एक पिघली सूखी हुई इबारत
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