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Showing posts from October, 2025

बेचारे लड़के क्या करें

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लडके अब नहीं चाहते मा बाप के साथ रहते हुए पढ़ाई करना बाल बनकर शेविंग करके कॉलेज जाना एक शहर में रहकर नौकरी करना मां की कल्पना के अनुसार एक आदर्श बहू ढूंढना वो चाहते हैं साथ पढ़ी लिखी मॉडर्न प्रोग्रेसिव स्त्री जो उनके साथ कदम से कदम मिला कर चल सके ऑफिस, क्लब ओर सड़क पर मगर घर जाने पर घूंघट में मां के पांव छू सके दादी काकी नानी के आशीर्वाद लेने ओर दिल जीतने में माहिर हो जरूरत आने पर दस लोगों का भोजन बनाने में उसके चेहरे पे शिकन न आए मगर बच्चों को पैदा करने सम्हालने ओर स्कूल भेजने में जिम्मेदारी शेयर करने न कहे दोहरी जिम्मेदारियां उठाने का अहसान न जताए क्योंकि नौकरी करना उसका शौक है और बाकी सामाजिक जिम्मेदारियां अनिवार्य लड़की अपने पति की दी हुई स्वतंत्रता का आभारी रहे कि उसने मातृत्व ओर गृह मंत्रालय के साथ अर्थव्यवस्था में भी उसे शामिल होने की स्वतंत्रता दी है बस लड़के समझ नहीं पाते ये पढ़ी लिखी लड़कियां इतना कुछ पाकर भी खुश क्यों नहीं हैं पितृसत्ता के साए में पले बढ़े दुलारे लड़के ये समझ नहीं पाते कि लड़कियां अपना आसमान अलग क्यों ढूंढ रहीं ...

अपने देश के प्रवासी

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हम जड़ से उखड़े हुए अपने ही देश में प्रवासी लोग सरकारी नौकरी ओर आवास पाकर  खुशी जाहिर करना चाहते हैं  मगर सामने जो लोग हैं वे हमे नहीं पहचानते उनके लिए सिर्फ फैलाने ब्लॉक के पहले तल्ले में बसे सरकारी ऑफिसर जो हर 3- 4 साल में  तबादले में चले जाते हैं हम वहां के मालिक नहीं, किरायेदार भी नहीं अरे नहीं आप अपने आवास में   रह सकते हैं मगर कोई परिवर्तन नहीं कर सकते  आगे की दीवार बढ़ा नहीं सकते  ओर पीछे की बालकनी में गमले नहीं लगा सकते  हमारे लिए अब अपना कहने के लिए कोई जगह नहीं छुट्टियों में गईं पहुंचने पर अक्सर  जाने पहचाने लोग अब भूलने से लगे हैं या बचपन में साथ खेले चचेरे भाई ओर बहन भी  हमारी तरह कहीं दूर जा बसे हैं काका काकी ओर पड़ोस वाली भाभियां अब बूढ़े हो चले हैं उनके बढ़ते चश्मे ओर मंद पड़ती यादाश्त में ऐसा कोई चेहरा नहीं बचा जो दस साल बाद हम उन्हें याद आ जाएं शहर के मकान पर अपना नाम  लिखवा लेने के बाद भी हम वहीं हैं अच्छा वो बिहारी फैमिली हमारे आधार कार्ड ओर वोटर आईडी भी बदल चुके हैं अब पीछे जाने का कोई रास्ता हमने छोड...

थोड़ा वक्त लगेगा

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कुछ दिन ओर चुभोगे तुम खामोशी के बीच बार बार  आंसुओं का एक रेला सा आंखों में न आकर गले में अटकता सा नीचे से ऊपर तक  सिर्फ बंगाल की खाड़ी की तरह खारा फिर सब ड्राई... वक्त ब्लॉटिंग पेपर है सुना है सब सोख लेता है वादे, कसमें, वफ़ा, बेवफा... शिकवे ओर शिकायतें भी हावड़ा ब्रिज से गुजरते वक्त  अटकोगे अचानक तुम भी इस मजाक पर खुद ही हंसोगे हम सब हर बार खुद को थोड़ा थोड़ा खो देते हैं ये कहने के बावजूद  कि इश्क़ का ये मंजर पसंद नहीं आया बाजार है, लेट्स मूव ऑन, आगे चलो समेट कर खुद को तुम्हे ओर वक्त को  चलना तो मुझे भी है,  थोड़ा अजीब हूं थोड़ा ओर वक्त लगेगा...

इक्कीसवीं सदी के दुर्लभ वादे

मुझे वो कुछ अलग सा लगा मगर ये झूठ था उसकी बातों में कुछ नया सा था मगर ये भी झूठ था  तमाम बातों के बीच उसकी आंखों का नाम होना झूठा था वो गहराइयां वो वादों की फेहरिस्त ओर आखिरी मुकाम होने की ख्वाहिशें ये मंजर नया था मगर झूठा ही था  फिर भी सच था वो वक्त.... जिसको जिया गया सैकड़ों मील की दूरियों में स्क्रीन पर उड़ती परछाइयों ओर तैरते शब्दों के बीच सब नया था उस वक्त मगर ओर ये भी एक नायाब बात है इनकी अहमियत सिर्फ मिलेनियल बता पाएंगे  वे 90 का प्यार ढूंढते 21वीं सदी की क्रूरता में भटकते लोग तुम क्या जानो 21वीं सदी में ये वादे भी बहुत दुर्लभ होते हैं क्योंकि जेन ज़ी से प्यार वफ़ा वादे जैसे खुशनुमा छलावे भी ऐ आई ने छीन लिए हैं  उनके पास हैं चैट जीपीटी के रेडीमेड उत्तर  जिनमें जज़्बात नहीं मशीनी बात होती हैं सिर्फ