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Showing posts from December, 2007

शब्द की तलाश

शब्द की तलाश भटकाती है हरदम, शब्द नहीं रुकने देते अनवरत बढ़ते कदम। शब्द उलझाते हैं; शब्द तरसाते है; शब्द की प्यास - व्याकुलता है चिरंतन। शब्द मुझे पीते हैं, बूँद- बूँद सांस तक; शब्द के उफान से बिफरता है तन- मन। राह- राह चलती  हूँ, प्यास- प्यास ढूँढती; खुद को दिए जाती हूँ हर जगह थकती। शब्द ही पर्याय, शब्द से ही तृप्ति; शब्द मिल जाते अगर, मिल जाती सृष्टि। पर शब्द भटकाव हैं, या शब्द है दिगंत, शब्द ही बताएँगे- शब्दों का अंत...

विचारधारा

विश्वविद्यालय में मेरे सामने खडे हैं चार दोस्त- एक लड़की दो लड़कों के साथ, और बगल में खड़ा है एक कुत्ता। लड़की, जो है बीस-एक साल की, रंगीन फूलों वाली छाप के कपडो में, लंबे बालों को झटकती, चश्मों को ऊपर चढाये, मार्क्स की बेसिर-पैर कल्पनाओं को नकार रही है। वे दो लड़के, अपनी पोस्ट माडर्निस्ट सोच के साथ , सीमेंट की बेंच पर पैर चढाये खडे हैं, फूलों वाले कपडे पहनी अपनी दोस्त के साथ। कभी- कभी उसकी पीठ पर, धौल जमा कर, उसकी बातों का समर्थन करते हुए, उसके बालों से खेलते हैं। उनमे से एक ने पकड़ रखी है, कुत्ते की बेल्ट। मगर कुत्ता- मार्क्सवाद की बुराइयों, लडकी के बाल और उसके दोनो दोस्तों से उदासीन, सामने पड़ी जूठी प्लेट को निहार रहा है, जो कि बिल्कुल खाली है...

खुल्ले नहीं हैं !

मैं, उनकी कार का ड्राईवर- हमेशा उनके साथ रहता हूँ, उनके कुत्ते की तरह, फर्क इतना ही है कि, कार से निकलते ही कुत्ता उनकी गोद मे आ जाता है ( लैप डॉग जो है), और मे वहीं, सामने wale बरामदे मे बैठा, ऊंघता रहता hun, जब तक वो दुबारा कहीं जाने के लिए नहीं निकलतीं। उनके मोटे से चेहरे पर, मोटा- सा चश्मा रहता है- जिसके काले शीशों से, मैं हमेशा खौफ़ज़दा रहता हूँ। बाज़ार में न जाने कितनी दुकानों के पास वो रूकती हैं, चश्मे के अन्दर से ही उनकी पैनी आँखें, चीजों को नापती- तौलती हैं, और जब झटके से पर्स खोल, दुकानदार को पचास का नोट पकड़ाती हैं तो उनका रॉब खाकर बेचारा, सिर्फ इतना कह पाता है कि मैडम ये to पा- पा- पचपन का था ... हौले से दपति वो ये कह बढ़ जाती हैं-... खुल्ले नही हैं । सड़क पर तेज चलती कार जब बत्ती लाल होने पे रूक जाती है, सामने वाले शीशे में उनका चेहरा, मैं देख भर लेता हूँ, जो ऐ सी चलने के बावजूद पसीने से नहाया होता है- अचानक शीशे के सामने आ गए दो- चार भीखमंगो को देख कर, और मैं, मैडम कि परेशानी देख, उन भीख्मंगों को डपटता हूँ- चल, भाग यहाँ से, देखता...

बिना सपनो की नींद

कहते हैं सबसे बुरा होता है- सपनों का मर जाना, कही मेरे सपने तो नही खो गए ..... अक्सर लोग सुनाया करते हैं सपने देखे जो पिछली रात अच्छा या बुरा, या कभी ऐसा कि बात कुछ हज़म नही होती, या वो बातें जिनका कोई तुक नही। पर सपने तो सपने होते हैं॥ जब सभी अपने सपने सुनते होते हैं, मेरे पास सुनने के सिवा कुछ नही होता। रोज सोते वक़्त, मई नींद से एक दुआ मांगती हूँ - एक सपने कि दुआ। पर आँख बंद करते ही, सबकुछ अँधेरे मे डूब जाता है, वो रंगीन बुलबुले भी नही दिखते- जिनसे बचपन मी परियां आती थीं। दिन भर कि हिम्मत-तोड़ थकान और हारी कोशिशों मे, शायद वो बुलबुले भी टूट जाते हैं, जिनसे सपने बुनती हैं नींद।