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Showing posts from May, 2011

एक शाम ठिठुरती सी

वो शाम बहुत ठंडी थी...घर के अन्दर हीटर की गर्माहट थी पर बाहर सर्दी की कंपकपी ..फिर भी घर काटने को दौड़   रहा था..मेरे उसके बीच सवेरे से एक शीत युध्द चल रहा था और  उसने मुझे अपना सामान ले कर निकल जाने कहा था.. पर ऐसा वो कई बार कर चुका था, इसलिए बात को सीरियसली न लेकर मैं इस बात का इन्तजार कर रही थी की थोड़ी देर में तो माफ़ी मांगेगा..और  फिर पीछे  से किचन आकर  वो मुझे अपनी बांहों में समेट  लेगा  पर उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.. फिर मैं बच्चे को गोद में लेकर पार्क  चली  गयी  ..पार्क  में बहोत देर तक चुपचाप  बैठी  रही..सामने  कुछ बच्चे खेल  रहे थे, मेरे साथ बहन  का लड़का  भी था, वो भी उन बच्चो में शामिल  हो गया. उसे इस बात का कोई आभास  नहीं था, की उसकी मौसी  के मन में कौन  सा तूफ़ान  चल रहा है  जब  अँधेरा  हुआ तो मैं वापस   घर पहुची, घर मैं कदम रखते ही उसने फिर से पूछा, तुमने अपना सामान पैक किया? मै बिलकुल बिखर सी गयी...तड़प कर पलटी और उसकी आँखों में झाँक क...

चाहे ठोकर मिले या मंजिल..

कुछ लोग बड़े आराम से चुन लेते है कि क्या बताना है, क्या छुपाना है, पर शायद ये विद्या मैंने सीखी नहीं, या सीखना आया नहीं..गुरु जी ने कहा जिन्दगी खुली किताब की तरह जियो, पर शायद ये बताना भूल गए की किताब के उन पन्नो को उन लोगो के सामने बंद कर दो, जो पढने की बजाय, शब्दों में आंसू ढूंढने लगे ओउर पन्नो की खूबसूरती से खेलने लगे... कदमो की आहटे कहती हैं, ये मेरे खुद के हैं, मेरे लिए कोई रास्ता पहले से नहीं बना न कोई मंजिल है तयशुदा...खुद ढूँढना होगा मुखं अपना, खुद बनाना पड़ेगा मुकद्दर भी.. शायद ये भी उतना मुश्किल नहीं होता अगर मैं नियति को बिलकुल अस्वीकार कर देती, पर कही न कही, मैं जाग उठी फिर...अन्दर का उबाल, रक्त में जमे स्वाभिमानी संस्कार विद्रोह कर बैठे..नहीं मैं लकीर की फ़कीर नहीं रह सकती... सवाल ये नहीं की रास्ता कौन सा है..सवाल ये है, रास्ता चुनने का अधिकार आपके पास है या नहीं... बहुत अफ़सोस की ये रास्ता मैंने खुद नहीं चुना था...हाँ अंतिम वक़्त पर कदम उठाते वक़्त सिर्फ इतना सोच पाई की मेरे लिए रास्ते चुनने का हक दुबारा किसी ओउर के हाथ में नहीं दूंगी....चाहे ठोकर मिले या मंजिल...

क्या आप खुश हैं?

ये सवाल मुझे पिछले २० सालो से कोंचता रहता है.. नहीं जानती वाकई में ख़ुशी  है क्या... अगर आपको पता हो तो जरुर बताइयेगा... मै कोई फिलोसोफी सुनने के मूड में नहीं, न आध्यात्मिक  हो गयी हु अचानक से.  पहले मुझे लगता था आपनी शर्तो पे अपनी जिदगी जी लेने में ख़ुशी होगी, बुत उसके लिए कभी कोशिश नहीं की...पढाई, परिवार, घर, और घर के लोग ये ज्यादा महत्वपूर्ण थे बनिस्पत की ख़ुशी की उस परिभाषा को जानने की जो मेरे लिए सही पैमाना बनती... हम वो हर कोशिश करते है, जिससे अपनों को ख़ुशी मिले और शायद उसी में खुद को खुश करने का बहाना ढूढ़ते फिरते है... पर शायद ये भी ख़ुशी का सही पैमाना नहीं..सबको खुश रखने की फिराक में हम खुद को भूल बैठते है, और अचानक फिर वही खालीपन काटने दोरता है, जिसे भागने के लिए हम रिश्तो का तानाबाना बनाते रहते है... फिर ख़ुशी को पाने की जिद भी उस बच्चे की जिद की तरह हो जाती है, जो मेले में एक खिलौने को लेने की जिद में माँ से बिछुड़  जाये..हम ख़ुशी धुन्धने की तलाश में आगे बढ़ते जाते है...एक रास्ते  से दुसरे रास्ते..इस मुकाम से उस मुकाम पर और फिर  अच...

उनकी मुहब्बत में

उनकी महफ़िल में जो सितम भी ढाए गए, हर सितम पे वाह वाह करना पड़ा वो करते थे इतनी मुहब्बत हमें कि मुहब्बत में खुद को कुर्बान करना पड़ा जिनके साए में देखे थे सपने अनेको उनके पहलू में ही सब ख़ाक हो गए उनकी नजरो से जो देखने लगे हम जहां को वो खुद जहा में कही खो गए चाहा था कि उल्फत में कभी खुद को मिटा देंगे पर मेरी उल्फत होगी रुसवा ये नहीं था पता जिनके लिए खुदा को मिटा बैठे थे हम वो गैर बन बैठेंगे ये नहीं था पता आज हम खामोश है डूबती सिसकियो कि तरह मगर उनको ये भी गवारा नहीं दिल में बस कि भी बेदिल बन बैठे वो शायद जीना हमारा गवारा नहीं

सफीना

मै जिस उम्मीद से खड़ी थी समंदर किनारे नाखुदा के इन्तेजार में कश्ती में बैठ कर पार कर लू भवरो के द्वन्द को पा लूँ उस पार की सरहद और जमीन जहां तूफ़ान और हलचल खो गए हैं छितिज़ के साथ साथ   कही दूर उस पार बैठ कर' कर सकुंगी एक सुकून की तलाश सहसा ख़याल आया कही वो सफीना भवर में ही खो गया तो....      

डर

रात के अँधेरे में हैवानियत के घेरे में परछाइयों से डरती हूँ इन मुखौटो के शहर में मुखौटेधारियो के सामने  मुखौटा हटाने से डरती हूँ चाहे अनचाहे सपनो के बीच एक हकीकत का सपना आता है..... जिसे देखने से डरती हूँ [wrote in 1994, Manjhaul Begusarai] .