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Showing posts from April, 2014

मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूँ

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मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूँ भूल जाना चाहती हूँ कि मेरी हर बात में हो तुम तुम, तुम्हारी बातें, तुम्हारा हँसना, तुम्हारा रोना, तुम्हारा उत्तेजित होना और तुम्हारी सहनुभूतियाँ जो हर कमजोर नस्ल के लिए उभरती थीं उनमे से कुछ भी अब मेरे सामने नहीं.. और मैं चाहती भी नहीं इन चीजों को अपने आसपास मैं  भूल जाना चाहती हूँ हर चीज को मापने का तुम्हारा पैमाना.. और हर अहसास को जीने का तुम्हारा नजरिया ..शुक्रगुजार हूँ कि तुमने उन रिश्तो को दिया है एक नया मोड़ जिन्हें मंजिल तक ले जाना मुमकिन न था और उन तमाम बातों के लिए जो तुम्हारी वज़ह से मेरे जीने का सबब बनी हैं पर उन तमाम खुशियों, ' हसरतों और चीजों के साथ साथ अपनी यादें भी क्यों नहीं ले लेते वापस क्यों मेरी तमाम जीने की कोशिशों को तमाचा मार देती है तुम्हारी गैर मौजूदगी निकाल ले जाओ अपनी परछाई मेरी रूह से मैं हर उस चीज को भूल जाना चाहती हूँ जिसपर तेरा नाम लिखा है.. हाँ मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूँ.

हिसाब ले लो

गम इस बात का नहीं की तुम यहाँ नहीं हो इसका है की हर बात में मौजूद रहता है तुम्हारे न होने का अहसास और हर वक़्त यही लगता है कि मैं खुद को नहीं तुम्हारे गायबाने को जीती हूँ.. मेरी जिन्दगी बन गयी है  तुम्हारे खालीपन का अक्स उसी अक्स को मैं अपने आइनों में भर लेती हूँ तुम्हारा प्यार, तुम्हारे दिए ग़मों के तोहफे और तुम्हारी यादें भारी पड़ने लगे हैं मेरे हर आने वाले लम्हे पर तुम्हारे सपनों को जज्ब किये लेती हूँ अपनी हसरतों में ये फेहरिस्त बड़ी है आंसू भरी बातो की, ज़रा हिसाब ले लो कितनी राते हैं तुम्हारे जज्बातों और मेरी अकेली रातों की..

एक प्रेम पत्र: रसायन की प्रयोगशाला से

मेरी प्यारी ऑक्सीजन अब मै दीवानगी शब्द का मतलब भी समझ गया हूँ ..साइंस की किताब के पन्नो में भी तुम समाई  लगती हो..और उसकी बातों में भी..मेरा यह परवाना तुम्हे मेरे दिल की हालत बयां कर देगा. दिन के चौबीस घंटों में छः घंटे सोने के निकाल कर बाकी अठारह घंटे इसी माइनस प्लस के समीकरण में बीत जाते हैं की तुम मुझसे और मै तुमसे कितना प्यार करता हूँ..और फिर एक नए सिरे से इस में अपना पलड़ा भारी करने में लग जाता हूँ..ये क्या होता जा रहा मुझे  ..तुमने प्रेम की ऐसी मधुर बंशी बजा कर मुझे मोहित तो आकर दिया फिर अब प्रेम निकुंज में घटाओं के बदले ये ग्रीष्म का आतप क्यों... तुम्हारा प्यार मेरी जिन्दगी का वो एलिमेंट है जिसमे कोई मिलावट नहीं..तुम्हारी एक एक गतिविधि का रिएक्शन मुझ पर इतना फ़ास्ट होता है जैसे मग्निशियम का फीता ऑक्सीजन पाकर जलने लगे.. जब तुम्हारी नरमियत महसूस होती है तो एक कार्बनिक पदार्थ की तरह  मेरे तन बदन में प्यार का सलूशन घुलने लगता है..पर तुम्हारी थोड़ी से भी बेरुखी और तल्खियत उस प्यार को कपूर की तरह उर्ध्व्पातित कर देता है.. और मोह ऐसे भंग होता है जैसे एलेक्ट्रोल्य्सिस के बाद ...

तुम्हारी याद

तुम्हारी याद आएगी-- जिन्दगी के हर छोर तक, सागर की गहराइयों तक नभ की उंचाई तक और यादों की सीमा तक. तुम्हारा साथ--- हर पल पाने को जी चाहेगा और फिर याद आएगी तुमसे जुदाई--- जिसके लिए हम मिले थे, एक हुए थे और अपने अपने दर्द को बांटा था.. -उस पल के आने पर कितने ग़मगीन थे तुम्हारे गायबाने में यह मैंने जाना था.

बदलते आयाम

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जब पास की पहाड़ी से गुजरती, ढोर-डंगर चराती बंजारनो को देखती हूँ तो मुझे निचले मैदान का वो फैलाव याद आता है...बांस के वो झुरमुट मुस्कराने लगते हैं, जिनमे छुप डूबने लगती थीं जल्दी ही किरणें, ह्रदय में शूल की तरह बिंधने लगती थी आम की मंजरियों के बीच कोयल की कूक और एक व्यंग्य सा लगता था पपीहे का विरह गायन! ...मैं ऊँचाई और आसमान खोजती थी, जबकि आँखें हरियाली में जी भर कर डुबकियाँ लगाने लगतीं, मै चट्टानों की कठोरता चाहती. मैदानी दिलों की नरमियत मेरे गले में हड्डी की तरह अटक जाती थी... मांझी की चल चल की तेर भी जब नहीं लुभा पायीं मेरी ख्वाहिशों को तो खुदा ने भी उन्हें बख्श दिया और अब -मेरी ख्वाहिशें अंजाम में तब्दील हुईं-- नदी का रास्ता कुछ टेढ़ा हो गया अचानक, और नावें खो गयीं उसकी पुराणी चल में, लड़खड़ाने लगी धार गुनगुनाहट को छोड़ कर--- ऊंची -नीची जमीन पर. आँखों का स्वप्न बदला. सामने नहीं थे अब बासंती मंजर, जिनमे डोला करता था अमराई का पत्ता पत्ता. अब धुन्धती रहती हूँ मैं पत्थर के एक-एक टुकड़े में आवाज..कृष्णा नदी की चौड़ी छाती पर आलमाटी बाँध का पानी कहर बन कर गरजता रहता है लगातार..जिसे दे...

नव वर्ष

मेह से विगलित धरती पर नूतन नेह, स्नेह से आलोकित मधुमय गह. नयी आकान्छाएं ललित परिवेश, नवीन कल्पनाओं के हैं मुखर सन्देश. हो पुण्य, स्मृतियों से सिंचित उपवन जीवन का हर्ष, खुशियों से झूम उठे नित नूतन नववर्ष. १ जनवरी, 1998