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Showing posts from March, 2019

उस फ़कीर की बात

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उस फ़कीर की हर बात आज झूठी हुई है मेरी तकदीर आज मुझसे रूठी हुई है बदलते वक़्त के नज़ारे शमाएँ बुत चुकी हैं और मैं-- एक सूखी नदी का तट बन चुकी हूँ मेरी तकदीर मुझसे रूठी हुई है उस फ़कीर की हर बात आज झूठी हुई है अकेलापन मेरा साथी बन गया है और बात जोहती सूनी आँखें मेरी पहचान क्योकि मेरी तकदीर आज मुझसे रूठी हुई है उस फ़कीर की हर बात आज झूठी हुई है ६ जून १९९४ 

तुम्हारे कमरे का अपनापन

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तुम्हारे कमरे में, हर चीज अपनी सी लगती है -गंदी चादरें, टेबल पर रखी बेतरतीब किताबें, कुर्सी पर पड़े तुम्हारे उलटे मौजे जूठी थालियाँ और अभी अभी उतारी तुम्हारी शर्ट जिसमे तुम्हारे पसीने की गंध है .. हाँ मुझे अहसास है कि ये मेरा कमरा नहीं, कि वक़्त ढलने से पहले मुझे चले जाना है कि घड़ी की सुइयां हमेशा डिगाती रहती हैं यहाँ के अपनेपन को अपनी रफ़्तार से फिर भी कुछ पल के लिए मैं भूल जाती हूँ मेरी नजरे डूब जाती हैं चीजों को करीने से रखने कि होड़ में हर धुल भरे कोने में ढूँढने लगती हूँ मैं अपना नाम जब फ़ैल जाती हैं तुम्हारी पनीली आँखें कुछ पल के लिए तुम्हारे कमरे की तरह और इस कमरे की हर चीज मुझे अपनी लगने लगती है तो मैं भूल जाती हूँ और भी कई बातें घड़ी की टिकटिक,  चीजों के बेगानेपन और सुबह से शाम की उहापोह को तुम्हारी आँखों का पानी पी जाता है ...

डरे सपने

सागर कि लहरों से टकरा कर हवा दे रही आवाज़ जिन्दगी क्यों गुलिस्तान में भी बर्बाद हो रही है अँधेरा बढ़ता जा रहा और शाम अब ढलने लगी है सपनो की दौर भी कुछ और लम्बी हुई है खुशियों की बातें अब बीता हुआ कल है भय और आतंक से भरा यहाँ हर पल है ख़ुशी का चमन देखने को जाने क्यों हम मचल रहे हैं आज फिर चमन में कुछ फूल खिल रहे हैं

तूफ़ान के बाद

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तूफ़ान से पहले मैं चाहती थी रात्रि की नीरवता को, शाम के धुंधलके को अंधेरों के फैलते साये को -जो छुपा लेते हैं गिरगिट की तरह पल पल बदलते मानव अस्तित्व को तूफ़ान के बीच चाहती थी मैं अंधेरों में बढ़ते शोर को जो ग़मों का एहसास न दे मगर तूफ़ान के बाद अब मेरा वही ह्रदय प्रकाश के विस्तृत संसार में सुबह की नयी रौशनी का अभिनन्दन करता है १६ जनवरी १९९८ 

जयमंगलागढ़ के प्रति

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हवाएं सरसराती हुई धीरे से पास आती हैं कहती हैं इतिहास ---जयमंगलागढ़ का नीली काबर झील की गोद में बसा अतीत की गहराइयों में फैला मानो विशाल पंछी बन यह गढ़ डैनों में अपने पाल वंश की धरोहरें समेटे अतीत, वर्तमान, और भविष्य सबको अपने अस्तित्व का अहसास कराता है ------ जयमंगलागढ़ अनेक धार्मिक आस्थाओं को अपने आँचल में समेटे माँ जयमंगला की पावन भूमि बन धर्म में भक्ति और अटल विश्वास जगाता है ------- जयमंगलागढ़ सात समंदर पार से आते पंछी और पर्यटक कलरव करते काबर के कछार में बरगद से झूलते असंख्य  बन्दर प्यार सदियों का उमंग भरा बेगुसराय का न्यारा प्यारा ------- जयमंगला गढ़ मई १६, १९९४ 

काश तुमने इन्तजार किया होता

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काश तुमने इन्तजार किया होता तो क्या बिगड़ गया होता बस यही न कि प्रतीक्षा की घड़ियाँ कुछ और लम्बी होतीं, पर इस तरह तेरी जिद की खातिर जिंदगियां कुर्बान न होतीं काश तुमने इन्तजार किया होता और फिर इन्तजार के लम्हे तो रिश्तों को अटूट बनाते हैं वक़्त का एक झोंका भी न सह पाए जो वो रिश्ता नहीं महज़ धोखे के काश तुमने इन्तजार किया होता कि जब तक कि हम संवर न गए होते काश तुमने इन्तजार किया होता फिर ये टीस तो न बनी रहती आंसुओं के सैलाब के साथ तेरे नाम पर ... अप्रैल १६, १९९४ 

हा! साथ सुशोभित विरह प्यास

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धूमिल स्नेह की  विगलित छवि ले राही करने चला प्रवास थकते ही मुड़ उसने देखा हा! साथ सुशोभित विरह प्यास मृगतृष्णा खोने गया जहाँ हर जगह मिली वह अमिट तृषा निज गेह चला करके प्रवास तब भी साथी थी विरह प्यास हा! साथ सुशोभित विरह प्यास धूमिल स्नेह की  विगलित छवि ले राही करने चला प्रवास हा! साथ सुशोभित विरह प्यास

हवा का रुख

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सुनहरा सवेरा चला आ रहा था हमारी तरफ  मगर वक़्त ने ऐसा जादू चलाया  हवाओं का रुख ही बदल सा गया

तुम एक पत्ता बन जाओ

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मेरी बात मानो तुम एक पत्ता बन जाओ पेड़ से गिरे पत्तों के ढेर का पत्ता, जंगल से गुजरते मुसाफिरों के पैरों तले कुचलता पत्ता, हवा के हर झोंके के साथ कुछ दूर तक बढ़ा पत्ता, घास के जंगलों और कांटेदार झाड़ियों के बीच फंसा पत्ता. बारिश के पानी के साथ बहा पत्ता, मिटटी की खुशबू से अंत में सिमटता पत्ता पाकर साँसे एक नए पौधे की फिर से जन्मा जो नया पत्ता बन सकती हो चाहो तो फिर से डालियों पर हवा में झूम रहा पत्ता. ९ जनवरी १९९८

कृष्णा नदी के किनारे

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मेरे सामने है दूर तक फैला कृष्णा नदी का पानी ऊपर के आसमान से  कहीं दूर जाकर  मिलता हुआ और मैं... कृष्णा और आसमान का वो जुड़ता  हुआ कोई छोर ढूंढती रहती हूँ लहरें देखने की इच्छा नहीं होती मेरी हवा के थपेड़ों में कहीं मेरा मुकाम न खो जाये बस इसी फ़िक्र में लगी रहती हूँ मेरे इर्द गिर्द बिखरे हुए हैं शंख, छोटे बड़े पत्थर और टूटी हुई सीपियाँ और मैं उन्हें छेड़ते रहती हूँ ... पर मैं जो  ढूंढती रहती हूँ उन्हें क्यों छुपा लेती है ये पर्छैयाँ इसे जान लेना चाहती रहती हूँ मैं मैदानों का बाशिंदा हूँ मैंने समंदर नहीं देखा नदी कि लहरों में ही डूबती उतराती रहती हूँ एक अनोखी चाह लिए लहरों में मोती ढूंढती रहती हूँ ८ जनवरी १९९८