अदृश्य
सब कुछ तिलस्म था नाम, पता, फोटो ओर कविताएं भी शायद लोग यूं ही बातों बातों में उलझ बैठे कोई डाक में चिट्ठियां छोड़ बैठा कोई कोई उधार की शायरी पर दिल गंवा बैठा अजीब शख्स था बस झूठ ही बता पाया मगर नमक के शहर का कोई पता नहीं होता किताबों की दुकानें किसी का घर नहीं होते नाम लगा लेने से हर कोई राहत इंदौरी नहीं बन सकता शब्द की दरकार है शेर पढ़ते चलो पंक्तियों के बीच खत का मजुमन ढूंढना पाठक का काम नहीं शायराना इश्क़ महज़ जज्बात हैं हर गली में कोई न कोई मकान उनका आशियां बन ही जाता है