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Showing posts from February, 2025

अदृश्य

सब कुछ तिलस्म था नाम, पता, फोटो ओर कविताएं भी शायद लोग यूं ही बातों बातों में उलझ बैठे कोई डाक में चिट्ठियां छोड़ बैठा कोई कोई उधार की शायरी पर दिल गंवा बैठा अजीब शख्स था बस झूठ ही बता पाया मगर  नमक के शहर का कोई पता नहीं होता किताबों की दुकानें किसी का घर नहीं होते नाम लगा लेने से हर कोई राहत इंदौरी नहीं बन सकता  शब्द की दरकार है शेर पढ़ते चलो  पंक्तियों के बीच खत का मजुमन ढूंढना पाठक का काम नहीं  शायराना इश्क़ महज़ जज्बात हैं  हर गली में कोई न कोई मकान उनका आशियां बन ही जाता है

औपचारिक

आखिरी बार अपना दिल समेटने से पहले हम उसकी पेशानी चूम लेना चाहते थे उसे आगोश में भरना चाहते थे उसके बालों को सूंघना चाहते थे उसके वजूद को अपने दिल ओर दिमाग में हमेशा के लिए जज़्ब कर लेना चाहते थे ओर ये सब हमने किया सिर्फ खामोश रहकर  अपनी नजरों से ताकि वो परेशान न हो उसका कहना है हम दोस्त हैं अब मेरे ओर उसके बीच इन औपचारिकताओं की जरूरत नहीं 

sirf mard

अब बस करो अधूरे खुदा तुम्हारी कविताएं तिलस्मी हो सकती हैं वजूद वही है एक साधारण सामाजिक  पितृसत्तात्मक  खोखले सामाजिक आदर्श अपनी सुविधा अनुसार ओढ़ी गई बेड़ियां ओर पासवर्ड के साथ छुपाए गए  सोशल मीडिया के इनबॉक्स में  अनगिनत अधूरे झूठे वादों की फेहरिस्त के साथ सिर्फ एक मर्द.....

breathing space

दीवार के दूसरी तरफ वो खड़ा था अपनी शिकायतें लेकर ये दूरी उसका ब्रीदिंग स्पेस थी  जो मेरे लिए अय्याशी हो जाती है उसकी निजी स्वतंत्रता उसका सुरक्षित कवच का  मगर मेरे जिंदगी में कुछ भी रहस्यमय होना उसे डरा देता उसके हिसाब से मेरे लिए क्या अच्छा होगा क्या बुरा  ये तय करना उसकी जिम्मेदारी थी मेरा खुद से कुछ तय करना, सोचना ओर आगे बढ़ जाना बिल्कुल ही गैर जिम्मेदाराना है यार आखिर मैं सुधरती क्यों नहीं वो तो सिर्फ अपनी परिधियों को अलग कर रहा था  ताकि तमाम उससे जुड़े लोग सहज रह सके ओर मैं उसका वो आवरण जहां वो क्षणिक रूप में घर महसूस कर सके जिसकी जरूरत सिर्फ बहुत बहुत थक जाने के बाद होती

मुझे सिर्फ शब्द चाहिए थे

मैने तुम्हे पत्थरों, पहाड़ों, नदी  ओर जंगलों में नहीं ढूंढा पता था तुम वह नहीं मिलोगे मैने ढूंढा तुम्हे अपार भीड़ में,  जहां इन्सान गीत गाते हैं इंसानियत का मैने ढूंढा तुम्हे हर जश्न ने  जहां जीत ओर संघर्ष दोनों के ही गीत गाए जाते हैं मैने तुम्हे मिट्टी खुद कर निकले  लकड़ी के उस टुकड़े में नहीं ढूंढा जिसकी आकृति में लोग खुदा ढूंढने लगते हैं मैने सिर्फ चाय की दुकान पर, नुक्कड़ वाले मोड पर, ओर लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर पाया  जहां अक्सर किताबों ओर सोच का मेला लगता है मुझे जो चाहिए था वो थे सिर्फ शब्द... ओर मैं समझ पा रही शब्दों का कोई शहर नहीं होता  कोई पता नहीं कोई ठहराव नहीं  ये तलाश अब यही खत्म होती है...

yu hi mil jao

ना जाने कहां कहां किस कदर ढूंढा तुम्हे ए जिंदगी अब यूं ही मिल जाओ तो अच्छा है एक अरसे के बाद तलाश की हिम्मत नहीं रहती@gunjanpriya.blogspot.com

तुम्हारे शहर का पता नहीं है मेरे पास

तुम्हारे शहर का पता नहीं है मेरे पास मैं अमृता प्रीतम नहीं  कि उम्र की सारी चिट्ठियां उस शहर को लिखूं  जिसका पता ही मेरे पास नहीं तुम्हे लौटना हो तो दरवाजे खोल कर कदम बढ़ाना होगा ओर अगर सामने वाले का इंतजार कर रहे  किसी बेवकूफ शुतुरमुर्ग की तरह  तुम्हे याद दिखाया जाए कि दरवाजे तुम्हारी तरफ से बंद हैं उफ्फ इंसान इश्क के अलावा भी कोई बेवकूफी कर सकता है क्या  यकीन नहीं होता 

bardasht nahi hote

बस अब तुम बर्दाश्त नहीं होते  हां मुझे वो वाकया भी याद है  जब तुम्हारे बिना जिंदगी बर्दाश्त नहीं होती थी शुक्रिया मुझे इतना मजबूत बनाने के लिए वाकई तुमने प्रेम को चुभन ओर टीस में बदलने की ताकत है ... @gunjanpriya.blogspot.com

ghar

लौटना हर किसी के बस में होता है पर लौटना कहां है ये किसी के बस में नहीं जाओ बहुत देर हो गई अब घर लौट जाओ...@gunjanpriya.blogspot.com 

सोशल मीडिया ओर मेट्रो सिटी का अकेलापन

अचानक दिमाग में आया कि देखना दुनिया में कितने लोग ऐसे हैं जो मुझे जानते हैं ओर मैं भी उनको जानती हूं। मेरे  ऑफिस के सहकर्मियों और पूरे भारत में ऑफिस के  मेरी जन पहचान के सहयोगियों की संख्या 1000 है! फिर कुछ सोशल मीडिया पर कुछ कॉलेज ओर यूनिवर्सिटी के लोग कुछ घर परिवार के। तो कुल जानने वालों की संख्या हो गई  लगभग ५००० जो एक एक बहुत बड़ी संख्या है!   पर क्या आपके नेटवर्क में इतने सारे लोग होना वास्तव में प्रभावशाली है! आजकल, हमारे पास सोशल मीडिया और अन्य तकनीकी साधनों के माध्यम से दुनिया भर में लोगों से जुड़ने के कई अवसर हैं। लेकिन फिर भी, हम अक्सर अकेलेपन की भावना का अनुभव करते हैं।  इसके कई कारण हो सकते हैं: 1. सोशल मीडिया की असली दुनिया से अलग दुनिया: सोशल मीडिया पर हमारे द्वारा बनाए गए संबंध अक्सर असली दुनिया के संबंधों से अलग होते हैं। हमारे सोशल मीडिया पर दोस्त और अनुयायी हो सकते हैं, लेकिन वे हमारे साथ व्यक्तिगत संबंध नहीं बना सकते हैं। 2. व्यक्तिगत संबंधों की कमी: आजकल, हम अक्सर अपने व्यक्तिगत संबंधों को बनाने और बनाए रखने के लिए समय नहीं देते हैं। ...

तुम्हारी कल्पनाओं की परफेक्ट औरत

तुम्हे  दुःख है तुम्हारी कल्पनाओं की  वो  औरत  एक परफेक्ट परी नहीं बन पाई मगर उसने प्रेम बहुत ज्यादा किया शायद तुम्हे भी इसी बात का अफसोस है  ओर इसलिए बहुत बहुत नाराज हो मुझसे खुद से ओर तमाम उनलोगों से जो  अपनी अपनी अपेक्षाओं को तुम पर टिकाए हुए हैं मगर उस औरत के पास सिर्फ प्रेम था असीम प्रेम और शायद वो इसी बात के सहारे जी सकती थी मगर बात यही तक सीमित नहीं थी हृदय से निकले प्रेम को वास्तविकता की नींव चाहिए होती है ओर तुम्हारी जिंदगी में बहुत कुछ झोल अभी बाकी है तो पहले उन जंजीरों को महसूस करो जिनसे जूझते हुए लहूलुहान हैं सदियों से उसके पैर उन लक्ष्मणरेखाएं को के अंदर जाकर देखो जिसे समाज, घर, जिम्मेदारियां ओर मर्यादा कहा जाता है  वर्जनाओं के उस जाल को अपने चेहरे की शिकन में  उभरने देते हुए कुछ ओर वक्त दो तुम्हे पता चल जाएगा सचमुच प्रेम काफी थी  इन सब बातों से परे होकर जीने के लिए

जब शब्द चूक जाते हैं

जब शब्द चूक जाते हैं खामोशी बहुत शोर करने लगती है फिर भी आप खामोश रहना चाहते हैं  एक मैसेज से किसी के दिल में ख्याल न जाए कि आपको उसका खयाल आया है लिख कर मिटा देते हैं वही एक बात आप बार बार कि गलती से तुम्हारा नाम आ गया लब पे मोबाइल की स्क्रीन पर टपक गई होंगी वो बातें  जो कहे बिना चलता रहेगा हमारे बीच  भारत पाकिस्तान का मैच  अच्छा है व्हाट्स ऐप ने अब डिलीट ऑप्शन दे दिया हैं गोया जिंदगी की सारी गलतियां सुधारी जा सकतीं 

एक बीमार स्त्री का प्रेम

एक बीमार स्त्री प्रेम करने का दावा नहीं कर सकती क्यूंकि उसका प्रेम प्रदर्शित नहीं हो सकता वह उम्मीद नहीं कर सकती प्रेम के बदले प्रेम का उसकी भावनाएं अनापेक्षित हैं बदले में मिल।सकती हैं सिर्फ सहानुभूति  ओर सांत्वना के दो चार शब्द अक्सर उसका प्रेम जटिलताओं में उलझ कर रह जाता है किंकर्तव्यविमूढ़ सा  कभी आंखों तक आकर कोने से ढुलक जाता है   दिल के किसी कोने में दबी राख सा सुलगता  उसकी पेशानी की शिकन में,  उसके सफेद होते बाल में  ओर लाल हुई आंखों में फिर वो प्रेम रिस रिस कर  हमेशा की तरह उसका प्रेम अधूरा रह जाता है

जब आखिरी बार हमारी मुलाकात होगी

मुझे मालूम है एक ओर बार मुलाकात होगी तुमसे हालांकि ये भी मालूम है ये आखिरी बार होगा ये बार बार टाली गई मुलाकात है  क्यूंकि अबतक मैं आखिरी शब्द जोड़ नहीं पाई हर बार तुम्हारे चले जाने को मैने फिर से टाल दिया  हर बार तुम्हारे दूर जाने को अपनी ही गलती मान ली हर बार तुम्हारे नाराजगी में खुद को शरारतें करते देख लिया चाय में अदरक ज्यादा , चीनी ज्यादा है,  शायद ज्यादा उबाल दिया होगा मैने शायद मेरा चुप रहना उसे पसंद नहीं आया पिछली बार उसे  ओह अबकी बार मेरा बीच में बोलना गलत हो गया तो अबकी बार क्या करना है मुझे नहीं पता मुझे बोलना है या चुप रह जाना है ये नहीं पता टूट कर रो देना है या तुम्हारे गले लग कर रो देना है नहीं पता कि तुम्हारे सामने सख्त बनकर तुम्हारे जाने के बाद बिखरना है नहीं पता  पर ये आखिरी बार होगा बस अब सिर्फ ये पता है  अब हमारे तुम्हारे बीच सिर्फ शिकायतें हैं शायद  मुहब्बत अब भी दबी होगी कहीं इन्हीं शिकायतों के बीच चाय साथ पीने की खत्म होती ख्वाहिशों के बीच उसे अब सुलगते छोड़ देना ठीक नहीं होगा शायद जाते जाते तुम उस राख को मसल कर जाना जो बार बार बच...

इनसे बचने की जरूरत है

अब थोड़ा थोड़ा हम भी पहचानने लगे हैं चीजों को, लोगों को ओर कीड़ों मकोड़ों को परजीवियों को, उपभोक्तावादियों कौन ओर अवसरवादियों को अब हम भी समझने लगे हैं आक्षेप जिनका लक्ष्य सिर्फ किसी को भी लग जाना होता है निंदा जो  यूनिवर्सल होते होते कब निजी हो जाती हैं ओर सुझाव जो शुरू से ही जजमेंटल होते हैं  पर कहा जाता है हमने तो अपना समझ कर कहा था  रक्तबीज की तरह फैलते ये साए  हमेशा लिपटे रहते हैं हमारे आसपास  पड़ोस, कार्यालय ओर सड़क पर आते जाते लोगों के बीच ओर मौका पाते ही दबोच लेते हैं आपके  स्वतंत्र स्वर, वस्त्र, खान पान ओर विचारों को क्षीण कर देतें है आपके उत्साह, आंदोलन ओर हर आवाज को जो थोड़ा उनके लीक से अलग हटकर  ओर आप उस बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं  जिसका नाम है "लोग क्या कहेंगे" बस टीकाकरण के साथ साथ अब इन सबसे बचने की जरूरत है

बात तो अब भी कर लेते हैं हम

बात अब भी करता है वो फूलों ओर शायरी की नहीं हर बात में झलकती है उच्च्छवास ओर अफसोस जैसे मेरे होने का ग़म हो उसे फिर भी बात करता है फिर बातों में सिर्फ मेरा मजाक उड़ाता है मेरे जीने के ढंग पर चलने, रहने ओर सोने ओर सपनो पर जैसे उसने तय कर लिया हो बिना मेरी बुराई किए उसकी जिंदगी का एक भी क्षण पूर्ण नहीं हो रहा हो बात अब भी करता है वो हमसे  खयाल अब भी उसे ओर इस बात का ग़म भी कि ख्याल क्यों है उसको जितने जतन से खुद से दूर किया उसने  अफसोस इस बात का फिर भी है  क्यों कोई ओर पास है इसके अब हमारे बीच शब्दों की तलवारबाजी होती हैं पैंतरे बदले जाते हैं हर वक्त कभी इस बात को लेकर कभी उस बात का बहाना बनाकर  अब भी मिलते हैं हम फीकी चाय की कड़वाहट से बेस्वाद बदमजा करेले की सब्जी चबाते हुए  जैसे बहुत अफसोस हो उसे की हम उससे मिले बिना क्यों नहीं रह सकते  ओर फिर दुबारा अफसोस हो कि उसके बिना सांस  ही क्यों ले रहे हम

Kuch Bakaiti ham bhi kar lete hain

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बहुत दिनों से बहुत शराफत में बतिया रहे थे हम इंस्टाग्राम पर जहां पर बाक़ी सब लोग शराफत छोड़ के आते हैं। गिव मी अ ब्रेक यार। आखिर औरत हूं शरीफ घर की लड़की। नौकरी करती हूं लेकिन ये कैसे भूल जाऊ कि बिहारी हूं। बिहारी एक हद तक ही चुप रह सकता है। ओर जब बिहारी बोलता है तो छोड़ता है लेकिन बिहारन....भैया बिहारन सीधे दागती हाईनेस की चमड़ी रह जाए ओर तुम्हारी हड्डी झुलस जाए। ब्लॉग ब्लॉग खेलते खेलते थोड़ा ऑब्सोलेट फील हो रहा था तो मैने सोचा मिलेनियम वाले तो ऐसे भी बीच के हैं थोड़ा ये भी कर लेते हैं और थोड़ा इंस्टाग्राम पर आके मॉडर्न भी बन जाते हैं। तो चले आए इंस्टाग्राम पर। चैंप दी अपनी ब्लॉग वाली कविताएं एक के बाद एक। अब ये मीडियम थोड़ा ज्यादा इंटरेस्टिंग है विजुअल्स ओर इंटरैक्टिव होने के कारण। मतलब कि हमको ब्लॉग की आदत लगी थी पर netflix की नहीं क्योंकि netflix में हम सिर्फ मूक दर्शक हैं चुपचाप देखते रहो। बल्कि मुझे जब नींद नहीं आती तो मैं netflix देखती हूं अब इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि सिनेमा बोरिंग हैं। हमारी जुबान जितनी बड़ी है उससे बड़े हैं हाथ तो जहां पर आपका मंतव्य भी दिख रहा हो वहां मन...

इश्क का मोल

जाओ दुनिया में ओर भी जगह है तुम्हारे लिए जहां मोल ज्यादा लग जाए तुम्हारे प्यार का इन रास्तों में सिर्फ रुख सूखा इश्क मिलेगा हमें मालूम है उससे तुम्हारा काम अब नहीं चलता @gunjanpriya.blogspot.com

अब कविताओं पर भी नजर हैं उन लोगों की

अब कविताओं पर भी नजर हैं उन लोगों की जिन्होंने बेड़ियां डाली पैरों में पायल ओर बिछुए बना कर जंजीर जकड़े हाथों में चूड़ियां पहना कर सपनों को सेंसर किया भर भर कर सिंदूर, घूंघट ओर नकाब डाल कर लक्ष्मणरेखाएं खींच दीं दिन ओर रात के हिसाब के साथ अब कविताओं पर भी नजर है उनकी वो तौलते हैं तुम्हारी हर बात को  बिना किसी उलझन के जड़ देते हैं अपने बनाए हुए टैग तुम मुस्करा भर दो तो शक की निगाह से देखेंगे  तुम रो दो तो लाचारगी बता कर हंस लेंगे  तुम्हारी खामोशी को भी एक इल्जाम बताएंगे  मगर तुम्हारे शब्दों से डरते हैं वे क्यूंकि शब्द बेबाक हैं उनमें घूंघट नहीं शब्द नग्न सत्य है वे उन पर पर्दा डाल नहीं सकते शब्दों से टूटता है वो सारा छद्म ओर तिलस्म  जिसके सहारे राज करते आए हैं वे सदियों से  इसलिए अब कविताओं पर नजर है उनकी कि उन्हें रोक कर वो कायम रख सकें  परंपरागत पितृसत्ता ओर उसके थरथराते आडंबर

दुनियावी ओर हिसाब इश्क

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अब हमारा इश्क गुलाबी नहीं  किताबी नहीं ओर इन्कलाबी भी नहीं अब वो हमें गालिब ओर फैज के शेर नहीं सुनाता  अब ये दुनियावी ओर हिसाब बातें हमारे बीच होती हैं ओर नाराज़गी इस बात की कि उसकी अम्मा की जेठानी की बेटी के ब्याह का किस्सा मैं नहीं सुन रही  ओर हमारा ढीठपन देखो कि अब भी शायरी की बातें करते हैं

फ्रेश है क्या

तुम्हारे बिस्तर की सिलवटें तकिए पर तुम्हारी बाहों के दवाब का निशान जूते पहनते वक्त जरा सी टेढ़ी की हुई कुर्सी हाथ पोछकर ऐसे ही छोड़ दिया तौलिया ओर जाते जाते छोड़ी जूठे कप में वो थोड़ी सी चाय....   शायद कई दिनों तक यूँही पड़े रहेंगे  जानबूझ कर अनछुई, बिना धुली  आते जाते ड्राइंग रूम तक हम उन्हें देखेंगे जैसे तुम अभी अभी गए हो शायद दिनों, हफ्तों ओर महीनों तक.... जब तक तुम्हारे दुबारा आने से पहले वो बदल न दिए जाएं फिर भी जब भी आते हो पूछते हो फ्रेश है क्या ...???

जब सवाल पूछे जाएंगे

सामने हों कर भी इतनी दूर बैठे हैं वो  गोया पास आने से ख्याल बिगड़ जाएंगे  मोबाइल में सिर घुसा के रील में डूबे हैं वो गोया बात करने से कहीं दिल न पिघल जाएंगे  जाने क्यों मेरा हाल फिर भी पूछते हैं वो  अगर नहीं है इश्क तो फिर ये सवाल जरूर पूछे जाएंगे तुम मेरे कौन हो अब अगर नहीं सब कुछ  किसी दिन अजनबी भी पूछ कर बेहाल कर जाएंगे   

बालकनी का सूरज

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खिड़कियों से मेरे सूरज कभी मुस्कराया नहीं  दिल में उदासी की धुंध  सी छाई है सुबह से ये दरवाजे बालकनी के बंद हैं अरसे से मुंडेर पर अब तक कबूतर कोई आया नहीं gunjanpriya@blogspot.com

मुझे अब संपूर्ण विराम की जरूरत है....

https://youtube.com/shorts/2OKQdkEH8q0?si=pjhgoyxJCfU2ovFE ऊब चुकी हूं धीरे धीरे खोखली हंसी अजनबियों की भीड़ में ओढ़ते हुए, किसी की दुष्टता सिर्फ इसलिए नजरअंदाज करते हुए  कि वक्त हर किसी का जवाब होता है ऊब चुकी हूं रेंगते कीड़ों की तरह लालची निगाहों से जो साड़ियों में लिपटे वजूद आंखों से नोच देना चाहते हैं सही ओर गलत के घृणित अंतर अब इस तरह तार तार हैं  किसी को कुछ भी नहीं कह सकते हर बात पर सिर्फ भावनाएं जब्त की जा सकती हैं ऊब चुकी हूं  उधार के शब्दों  ओर पड़ोसियों की अतिशय सदाशयता से बच बच निकलते ओर बिखरे बिखरे आधे अधूरे टूटे टुकड़ों में व्यक्त रिश्तों से  ओर चाशनी में लिपटे व्यंग्योक्तियों से   मुझे अब संपूर्ण विराम की जरूरत है....

कामगारों की बस्ती

ये बस्ती है कामगारों की जुबान चलती हैं मशीन से ज्यादा  कतर कतर कतर कतर और फिर कुछ खटर खटर भी  बॉस की चुगली बड़े बॉस से फिर उसकी चुगली उससे भी बड़े बॉस से आत्म संतुष्टि सिर्फ इसी में है कि हर बॉस के ऊपर कोई ओर है ये बस्ती कामगारों की नहीं मिलता कोई अतिरिक्त वेतन, नई हैं इनसेंटिव्स, पदोन्नति या प्रेरणादायक सम्मान कोई इन कामगारों का क्या है ये डिजर्व ही नहीं करते होंगे कुछ भी अरे ये तो जड़ विभाग हैं इन्हें बस काम दो ओर काम ताकि इनकी जुबान कम चले जब चलें तो इनकी नजर नीची हो ये बस्ती कामगारों की कुचल दो इनके अरमानों को विरोध करने की हिम्मत न बचे लड़ाओ इन्हें बटेर ओर तीतर की तरह  आखिर बोरियत दूर करने के लिए कुछ तो होना चाहिए लगाओ इनकी ड्यूटी रात के १२ बजे सुबह के चार बजे ओर शनिवार ओर इतवार को भी। पता तो चले इन्हें भी आखिर इतनी बड़ी संस्था में कम करने का सौभाग्य मिला है थोड़ा ओर मजा लेते हैं उन नियोजित ओर गैर नियोजितों को भी तुगलकी फरमान देकर इनकी निजी जिंदगी पहले ही कोई औचित्य नहीं रखती न उनका स्वास्थ्य न उनकी मुसीबतें न उनका वेतन न ही अस्तित्व हमारे कॉरपोरेट रिस्पांसिबिलिटी में...

आंसुओं के रंग

उसने मुझे इतना रुलाया इतना रुलाया  कि आंसू भी अपना रंग भूल गए अब वो कहता है जिंदगी में ऐसे ही कई रंग होते हैं मुझे तो सिर्फ बदरंग नज़र आता है वो 

दिल के दाग दिखाए क्यों

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dil ke daag dikhaye kyu दिल के दाग दिखाए क्यों ग़म के नग़्मे सुनाए क्यों सुनेगी दुनिया हंस हंस के तुम पर फिर कहेंगे चलो जाओ वापस तुम आए क्यों राह मुहब्बत की कब जमाने में आसान थी हमसे पूछे बिना यूं आजमाए क्यों  बात पूछेंगे भी तंज देते हुए इश्क में उन दिनों बहोत इतराए क्यों दिल के दाग दिखाए क्यों  ग़म के नग़्मे सुनाए क्यों

एक ओर चाय बेस्वाद थी

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इस बार  चाय बेस्वाद थी वो चाय के साथ यादों के आसंग बनाने नहीं आया था न बेगम अख्तर के गाने सुनने थे बगल ने बैठ कर  न गाड़ी सही से चलाने की नसीहत देनी थी इस बार वो उन वादों को फिर से दोहराने नहीं आया था जिनकी फेहरिस्त मैने जुबान पर रट हजारों ख्वाहिशें पाली थीं  इस बार वो बहुत चौकन्ना आया था  हालांकि अभी भी ये बात जनवरी के धुएं भरे कोहरे में छुपी सी है कि आखिर वो क्यों आया था हम दो शुतुरमुर्ग अपनी अपनी खाल में खुद को छुपाए रहे रेत में सिर घुसा कर इस बार हमारे बीच विचारों की जटिलताएं बहुत गहरी दूरियां बन गई थीं इस बार हमने साथ चाय भी नहीं पी  ओर आखिरी चाय जो उसके जाने के बाद  उस जूठी कप में मैने पी उसमें कोई स्वाद नहीं था ....